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________________ गद्यचिन्तामणिः तैयारियां करा रही थी। शुभ मुहूर्तमें जीवन्धरने लक्ष्मणाका वरण किया। लक्ष्मणाकी माताका नाम नवुति था । १० एकादश लम्भ २६४-२६८. राजा जीवन्धर निष्कण्टक राज्यका उपभोग करने लगे । सब देवियोंको बुलाकर उन्होंने प्रसन्न किया । तदनन्तर विजया महादेवी और सुनन्दाने आर्यिका की दीक्षा ले ली इसलिए ant इष्टवियोगका दुःख हुआ परन्तु धीरे-धीरे संसारका प्रवाह अपनी धारासे चलने लगा । ३९५ - ४०१ २६९ - २७४. किसी समय जीवन्वर क्रीडासरसीमें जलक्रीड़ाके लिए गये। स्त्रियोंके साथ जलकोड़ा करनेके बाद उन्होंने वानरोंकी लोला देखी । एक वानरी वानरसे रुष्ट हो गयी तब वानर यह कहकर अचेत पड़ गया कि यदि तुम मुझे नहीं चाहती हो तो मैं मरता हूँ। वानरी उसे सचमुच मृत समझ उसका आलिंगन करने लगी । प्रणयकोप समाप्त होनेके उपलक्ष्य में वानरने एक पनसफल तोड़कर वानरीके लिए दिया, किन्तु वनपालने आकर वानरीसे वह पनसफल छीन लिया। इस घटनासे जीवन्धरको वैराग्य आ गया । उन्होंने समझा कि जिस प्रकार इस वनपालने वानरीसे पनसफल छीन लिया है उसी प्रकार मैंने काष्ठांगारसे राज्य छीन लिया है। विषय-भोगोंसे उनका वित्त विरक्त हो गया। उन्होंने मुनिराजके मुख से धर्मोपदेश श्रवण करनेकी भावना प्रकट की तथा कर्मचारियोंको जिनपूजाको सामग्री तैयार करनेका आदेश दिया । २७५ - २८२. मन्दिर में जाकर उन्होंने गद्गदवारणीसे भगवान्‌का स्तवन कर पूजा की तथा दो मुनिराजोंके दर्शन कर उनसे धर्मोपदेशकी प्रार्थना की। प्रधान मुनिराजने चतुर्गति रूप संसार के दुःखोंका वर्णन करते हुए उससे छूटने का उपाय बतलाया। इसी संदर्भमें जीवन्धर महाराजने मुनिराज से अपने पूर्वभव पूछे 1 २८३ - २८६. मुनिराजने कहा कि तुम पूर्वभवमें धातकीखण्ड द्वीपके भूमितिलक नगर के राजा पवनयेमके यशोधर नामक पुत्र थे। तुमने अज्ञानवश हंसके एक बच्चे को पकड़वाकर उसे मातापितासे वियुक्त किया था। पीछे पिता के कहने से तुमने उसे छोड़कर माताके पास भेज दिया था । इसी पापके कारण तुम्हें प्रारम्भसे ही माता-पिताका वियोग सहन करना पड़ा है। मुनिराज - के मुखारविन्दसे अपने पूर्वभव तथा धर्मोपदेश सुनकर जीवन्धरका वैराग्य प्रवाह और भी तीव्रवेग से बहने लगा | उन्होंने गन्धर्वदत्ता के पुत्र सत्यन्वरको राज्य दिया तथा सब स्त्रियों को संसारको स्थिति परिचित कराया । इससे सब स्त्रियाँ भी दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक हो गयीं । अन्त में नन्दा और अपनी सब स्त्रियोंके साथ उन्होंने भगवान् महावीर स्वामीके समवसरण - की ओर प्रयाण किया । २८७ - २९७. समवसरणमें पहुंचकर उन्होंने भगवान् महावीर स्वामी की स्तुति की तथा दीक्षाकी प्रार्थना की। तदनन्तर दीक्षा धारण कर उन्होंने परमसंयम स्वीकृत किया। उसी समय सुदर्शन यक्षने लाकर इनकी स्तुति की। अन्तमें कठिन तपश्चर्या कर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया और देवियोंने यथा योग्य स्वर्गपद प्राप्त किया । परिशिष्ट १. क्षत्रचूडालंकार २. सूक्तिसंचय ३. व्यक्तिवाचक सूची ४३९-४४२ ४४३ ४४४-४४५ ३८३-३९४ ४०१-४०८ ४. भौगोलिक शब्द सूची ५. पारिभाषिक शब्द सूची ६. कतिपय विशिष्ट शब्द सूची ४०८-४२० ४२०-४२७ ४२७-४३७ ४४५ ४४६–४४७ ४४७-४५७
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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