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गचिन्तामणिः
- वाधकोंका परिहार-वादोमसिंहका उक्त समय स्वीकृत करनेमें निम्नलिखित बाधक कारण उपस्थित किये जाते है
(१) गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणिमें जो जीवन्धर चरित्र निबद्ध है वह गुणभद्राचार्यके उत्तरपुराणसे लिया गया है और उत्तरपुराणको रचना शकाब्द ७७० ईसान्द ८४८ के लगभग हुई है अतः वादोभसिंह गुणभद्रसे परवर्ती हैं।
(२) बल्लाल कविने भोजप्रबन्धमें उल्लेख किया है कि एक बार किसीने कालिदासके सामने धारानरेश भोजको झूठी मृत्युका समाचार सुनाया जिसे सुनकर कालिदासके मुखसे निकल पड़ा
'अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिता: सर्वे भोजराजे दिवंगते ।' इसी झलकको लिये हुए वादोभसिंहने गचिन्तामणिमें काष्ठांगारके द्वारा हस्तिताडनके अपराधम जीवन्धरस्वामीको प्राणदण्ड घोषित किये जाने और श्मशानसे सुदर्शन यक्ष-द्वारा उनके गुसरूपसे स्थानान्तरित किये जानेपर परवासियोंकी च के रूप में एक गद्य लिखा है
'अद्य निराश्रया थीः, निराधारा घरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम, नि:संसार: संसारः, नोरसा रसिकता, निरास्पदा बोरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम्...' गद्यचिन्तामणि, पृ० १३१ ।
इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह भोजके परवर्ती हैं। धारानरेश भोजका समय १०१०१०५० ई० निश्चित है।
(३) श्रुतसागर सूरिने सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू ( आश्वास २, श्लोक १२६ ) को अपनी टोकामें वादिराज कविका एक श्लोक उद्धृत करते हुए वादोभसिंह और वादिराजको गुरुभाई तथा सोमदेवका शिष्य बतलाया है । उल्लेख इस प्रकार हैउक्तं च वादिराजेन कविना
'कर्मणा कवलितोऽजनि सोऽजा तत्पुरान्तरजनङ्गमवाटे ।
कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ।' 'स्वागतैति रनभादगल्यग्मम' इति वचनात स्वागता छन्द इदम । स वादिराजोऽपि श्रोसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः घोबादिराजोऽपि मदोयशिष्यः' इत्युक्तत्वात् ।'
इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह सोमदेवसे परवर्ती है । सोमदेवने यशस्तिलकको रचना शकाब्द ' ८८१ ( ई० ९५९) में की है और वादिराजने अपना पार्श्वचरित शकाब्द ९४७ ( ई० १०२५ ) में समाप्त किया है।
उपर्युक्त बाधकोंका समाधान इस प्रकार है
(१) 'जीवन्धर स्वामीके चरितका तुलनात्मक अध्ययन' नामक स्तम्भमें उत्तरपुराणको संक्षिप्त कथावस्तु देकर यह स्पष्ट किया गया है कि वादीमसिंहको गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणिका आधार गुणभद्रका उत्तरपुराण नहीं है। क्योंकि स्थान, पात्रोंके नाम आर वृत्तवर्णनमें यत्र-तत्र भेद है। यह कथा उपन्यासकी तरह काल्पनिक नहीं कि लेखक अपनी इच्छानुसार पात्रोंके नाम आदि परिवर्तित करने स्वतन्त्र हो; किन्तु सत्यकथा है। इसमें कवि अपना कवित्व हो प्रकट कर सकता है नाम, स्थान आदिमें परिवर्तन नहीं कर सकता। फुटनोटमें गद्यचिन्तमणिकी कथाका अन्तर भी दिया गया है जिससे उक्त कथनका समर्थन होता है। यद्यपि वाण कविने बृहत्कथामंजरीसे कादम्बरीकी कथा लेकर बहुत-से नामोंमें परिवर्तन किया है परन्तु वह कोरी काल्पनिक कथा है उसका इस सत्य कथामें उदाहरण ग्राह्य नहीं हो सकता।
(२) बल्लाल कविका भोजप्रबन्ध बहुत पीछेका (१६०० शताब्दीका) ग्रन्थ है और उसमें ऐतिहासिकताको जो दुर्दशा दी गयो उसे देखते हुए कोई भो इतिहासज्ञ उसके उल्लेखको प्रमाणकोटिमें रखने में हिचकिचाता है। क्या यह सम्भव नहीं है कि बल्लालके उक्त वचनोंपर वादोभसिंहका ही प्रभाव हो?