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प्रस्तावना
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वादोभसिंहका जन्मस्थान - पद्यपि वादीर्भासह के जन्मस्थानका कोई उल्लेख नहीं मिलता तथापि आपके ओडदेव नामसे श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने अनुमान लगाया है कि आप मद्रास प्रान्ताप्रदेश निन्दामी हैं और बी० शेषगिरि राव एम० ए० ने कलिंग (तेलुगु) के गंजाम जिलेके आपका निवासी होना अनुमित किया है। गंजाम जिला मद्रासके एकदम उत्तरमें है और कब उड़ीसा में जोड़ दिया गया है । वहाँ राज्यके सरदारोंको ओडेय और गोडेय नामको दो जातियाँ हैं जिनमें पारस्परिक सम्बन्ध भी हैं अतएव उनको समझमें वादीभसिंह जन्मतः ओडेय या उड़िया सरदार होंगे'।
श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने लिखा है कि यद्यपि आपका जन्म तमिल प्रदेश में हुआ था तथापि इनके जीवनका बहुभाग मैसूर प्रान्त में व्यतीत हुआ था और वर्तमान मैसूर प्रान्तान्तर्गत पोम्बुच्च ही आपके प्रचारका केन्द्र था। इसके लिए पोम्बुच्च एवं मैसूर राज्य के भिन्न-भिन्न स्थानों में उपलब्ध आपसे सम्बन्ध रखनेवाले विलालेख ही ज्वलन्त साक्षी हैं ।
वादीभसिंहका समय - ( १ ) वादीभहिने गद्यचिन्तामणिको पूर्वपीठिका श्रीपुष्णसेनको अपना गुरु घोषित किया है। मस्लिपेण प्रशस्ति में अकलंक - विषयक श्लोकोंके बाद ही निम्नलिखित श्लोक भाता है-
'श्रीपुष्पेणमुनिरेव पदं महिम्नो देवः स यस्य समभूत्स महान् सघर्मा | पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा ॥'
श्रीविभ्रमस्य भवनं नतु पद्ममेव
वह पुष्पपेण मुनि ही महिमा के स्थान थे जिनके कि वह महान् अकलंक देव सधर्मा गुरुभाई थे । निश्चयसे पोंमें वह कमल ही लक्ष्मी के विलासोंका घर होता है जिसका कि सूर्य मित्र होता है ।
इस श्लोक में पुष्पणको अकलंकका सघर्मा — गुरुभाई बतलाया है । सम्भवतः यह पुष्पषेण मुनि वही हैं जिन्हें गद्यचिन्तामणिके प्रारम्भमें वादीभसिंहने अपना गुरु बतलाया है । उसी मल्लिषेण प्रशस्ति में वादसिह उपाधि धारक गणभृत् ( आचार्य ) अजितसेनका उल्लेख मिलता है जो वादीर्भासह ही जान पड़ते है यह पीछे लिख आये हैं । पुष्पपेण अकलंकके गुरुभाई थे और वादीभसिंह उनके शिष्य थे अतः वादसिंहका अस्तित्व अकलंकके बाद सिद्ध होता है ।
(२) दादी सिंहको गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर के लिए उनके विद्यागुरु-द्वारा जो उपदेश दिया गया है वह बाणभट्टको कादम्बरीके शुकनासोपदेश से प्रभावित । यही नहीं, गद्यचिन्तामणिके और भी कुछ स्थल उन्हीं बाणभट्ट के श्रीहपंचरित के वर्णन के अनुरूप है अतः यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि वादीभसिंह बाणभट्टके परवर्ती हैं। बाणभट्ट भी राजा हर्षके समकालीन [ ६१०- - ६५० ई० ] थे ।
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(ङ) अकलंक देवके न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी वादीभसिंहको स्याद्वादसिद्धिपर प्रभाव है अतः यह उनके उत्तरवर्ती विद्वान् है ।
(४) वादको स्याद्वादसिद्धि के छठे प्रकरणको १९वीं कारिकामें भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत-भावना नियोग रूप वेदवाक्यार्थका निर्देश किया गया है तथा कुमारिल भट्टके मोमांसाश्लोक वातिकसे कई कारिकाएं उद्धृत कर उनकी आलोचना की गयी है । कुमारिल भट्ट और प्रभाकर सम कालीन विद्वान है तथा ईशाकी सातवीं शताब्दी उनका समय माना जाता है अतः वादीभ सिंह उनके परवर्ती है "। इन सब कारणोंस वादीभसिंहका समय आठवीं शतीका अन्त और नोवोंका पुत्र सिद्ध होता है । विष्ट उहापोहके लिए पं० दरवारीलालजी न्यायाचार्य एम० ए० के द्वारा सम्पादित स्थाद्वाद - सिद्धिकी प्रस्तावना देखें ।
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१. जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ३२४, द्वितीय संस्करण | २. क्षत्रचूडामणि उत्तरार्धकी प्रस्तावना, पृष्ठ 1 ३. देखो, स्याद्वादसिद्धिको प्रस्तावना, पृ० १९ । ४. वही, पृ० १०-२०