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________________ गद्यचिन्तामणिः श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ५४ की मल्लिषेण प्रशस्ति में वादी भसिंह उपाधिसे युक्त एक आचार्य अजितसेनका उल्लेख किया गया है, बहुत कुछ सम्भव है कि यह उपर्युक्त वादीभसिंह हो हों और 'अजितसेन' यह उनका मुनि अवस्थाका नाम हो, क्योंकि अधिकतर दीक्षा के समय जन्मजात नामको परिवर्तित कर दूसरा नाम रख देनेकी परम्परा साधुओंमें बहुत समय से प्रचलित है। प्रशस्ति में दिया हुआ 'वादीभसिंह' पद उपाधि-सूचक ही है विशेषण-सूचक नहीं, क्योंकि 'मदवदखिलवादी भेन्द्रकुम्भप्रभेदी' - 'मदयुक्त समस्त वादीरूपी गजराजोंके गण्डस्थलोंको विदीर्ण करनेवाले' इस तृतीय पादसे विशेषणका कार्य गतार्थ हो चुकता है । श्री टी० एस० कुप्पुस्वामी, श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और पं० के० भुजवली शास्त्री ने भी उक्त अभिप्राय प्रकट किया है। १४ गद्यचिन्तामणिकारने पूर्वपीठिका के छठे श्लोकमें अपने गुरुका नाम पुष्पसेन घोषित किया है और कहा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभावसे मूढबुद्धि मनुष्य वादीभसिंहता और श्रेष्ठमुनिपनाको प्राप्त हो सका है। श्लोक इस प्रकार है- श्रीपुष्पसेन मुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुहृदि सदा मम संविदध्यात् । कलक्तितः अङ्कतिसूक्ष्मतिनाऽपि वादोमांसहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥ ६ ॥ ओडयदेव - अजित सेनको 'वादोभसिंह' यह उपाधि अपनी तार्किक प्रतिभा के कारण ही प्राप्त हुई होगी। उनकी तार्किक प्रतिभा उनके द्वारा रचित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित 'स्याद्वादसिद्धि' ग्रन्थसे स्पष्ट हो जाती है । प्रत्यके अन्तर्विलोडनसे विदित होता है कि वे दर्शनशास्त्र के अद्वितीय विद्वान् थे और अपनो वादशक्ति से अन्य वादियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले थे । इन्होंने जिन पुष्पसेन गुरुका उल्लेख किया है उनका निर्देश उसी मल्लिपेण "प्रशस्ति में अकलंकके सधर्मा — गुरुभाईके रूपमें किया गया है। ऐसा जान पड़ता है। तार्किक लोगोंसे काव्यकी रचना होना असम्भव नहीं है । यशस्तिलकचम्पूके कर्ता सोमदेवने लिखा है कि मेरी इस बुद्धिरूपी गायने जन्म से लेकर सूखे तृणके समान तर्कशास्त्रका अभ्यास किया है तो भी पुण्यात्माओं के पुण्यसे उससे यह सूक्तिरूपी दूध उत्पन्न रहा है। वादीभसिंह भी यद्यपि न्यायशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे और उसी रूपमें उनकी प्रसिद्धि थी फिर भी यह 'गद्यचिन्तामणि' और 'क्षत्रचूडामणि' नामक गद्य और पद्य काव्य उनकी दिव्य लेखनीसे प्रसूत हुए इसमें आश्चर्यको क्या बात है ? पहले अधिकांश शास्त्रार्थ राजदरबार में हुआ करते थे अथवा निश्चित बादशालाओं में सम्पन्न होते थे और विजेता विद्वान् राजाओं के द्वारा सम्मान पाता था। जब वादीभसिंह प्रचण्ड वादीरूपी हस्तियोंको पराजय के गर्त में गिरानेवाले थे तब राजाओंक द्वारा उनकी मान्यता स्वयं सिद्ध थी। इस तरह श्रद्धेय प्रेमीजीकी उन मान्यताओंका आंशिक समाधान हो जाता है जिन्हें उन्होंने अजितसेन और वादीभसिंहके एक होने में उपस्थित किया है। मदवखिलवादीभेन्द्र५४ । २. टी० एस० १. सकलभुवनपादानत्रमूर्धवबद्ध स्फुरित मुकुटचूडालीढपादारविन्दः । कुम्भप्रभेदी गणभृदजितसेनी भाति वादीभसिंहः || ५७|| शिलालेख संख्या कुप्पुस्वामी- गद्यचिन्तामणिकी प्रस्तावना । ३. न्याय कुमुदचन्द्रोदय प्र० भा० प्रस्तावना पृष्ठ १११ । ४. जैन सिद्धान्त मास्कर, भाग ६, अंक २, पृष्ठ ७६ - ८० और भाग ७, अंक १, पृष्ठ १-८। ५. श्रीपुष्प पेणमुनिरेव पदं महिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान् धर्मा। श्रीविभ्रमस्य मवनं ननु पद्ममेव पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहत्वधामा ॥ मल्लिपेण प्रशस्ति । ६ आजन्मसमभ्यस्ताच्छुष्कातर्कात्तृणादिव ममास्याः । मतिसुरमेरभवदिदं सूतिपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ १७॥ य० ६० ॥ मायभूषणं परिहरेतौद्ध त्यमुन्मुखतः स्याद्वादं वदता नमेव विनयाद्वादीभकण्ठीरवम् | नो चेत्तद्गुरुगर्जित७. मिथ्याश्रुतिमय भ्रान्ताः स्थ सूर्यं यतस्तूर्णं निग्रहजीर्णकूपकुहरे वादिद्विपाः पातिनः ||५५|| महिलषेण प्रशस्ति । ८. जैन साहित्य और इतिहास 25 ३२२, द्वितीय संस्करण |
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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