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प्रस्तावना
(३) श्रुतसागर सूरिके यशस्तिलक चम्पूको टीकावाले उद्धरणका जबतक कहीं अन्य स्थलोंसे समर्थन नहीं होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमें नहीं लिया जा सकता। न्यायविनिश्चयालंकारको प्रशस्तिमें वादिराजने अपने गुरुका नाम मतिसागर बतलाया है और वादीभसिंह पुष्पसेनका स्मरण करते हैं तब उनको सोमदेवको शिष्यता निर्धान्त कैसे हो सकती है?
इनके शिवाय श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६ किरण २ में प्रकाशित 'क्या वादीसिक अवलंक देवके समकालीन है ?' शीर्षक लेखमें 'मद्रास और मैसुर प्रान्तके जैन स्मारकके १० शिलालेख उद्धत कर उनमें उल्लिखित 'अजितसेन पण्डित देव', 'मुनिवादीसिंह अजितसेन', 'अजितसेन पतिदेव वादिघरट्र', 'अजित मनिपति', 'अजितसेनभट्टारक और मुनि अजित सेन देव' को गद्यचिन्तामणिकार वादोभसिंह मूरि स्वीकृत कर उन्हें ११वीं शताब्दीका विद्वान् प्रकट किया है परन्तु उन उल्लेखोंमें एक भी उल्लेखसे उल्लिखित अजितसेनोंका गद्यचिन्तामणिका कर्तत्व सिद्ध नहीं होता। क्या यह सम्भव नहीं है कि वे अजितसेन दूसरे हों। उक्त शिलालेखोंमें 'उन्हें चरण धोकर भूमि दो' आदिका ही अधिकांश उल्लेख है अतः घे मठाधीश ही जान पड़ते हैं गणभृत् अथवा नि:स्पृह सुरि नहीं । साथ ही उनमें उनके द्राविडसंघ तथा अरुंगलान्वय आदिका उल्लेख है जब कि वादी भसिंहके संघ तथा अन्वय आदिका कहीं उल्लेख नहीं है।
वादोभसिंहको निःस्पृहता-वादोभसिंहका समग्र जीवन अत्यन्त पवित्र जान पड़ता है। उन्होंने अपने साहित्यमें जहां-तहाँ स्त्री पात्रका जो वर्णन किया है उससे विदित होता है कि सम्भव है वे बालब्रह्मचारी रहे हों और छोटी अवस्थामें ही उन्होंने गुरुजनोंके सम्पर्कमें रहकर अध्ययन किया हो। वादीसिंह-जैसे बहमुखी पाण्डित्यके लिए बाल्पावस्थासे ही गुरुजनोंका सम्पर्क अपेक्षित है। वावीसिंहकी रचनाएँ
वादीभगिह बहुत ही प्रतिभाशाली प्राचार्य थे। आपके वाग्मित्व कवित्व और गमकत्वकी प्रशंसा जिनसेनाचार्य-जैसे महाकावन को है। मापक 'वादाभासह' नामसे जो कि एक उपाधि जान पड़ती है आप एक बरे ताकिक जान पड़ते हैं । 'क्षत्रचूडामणि' और 'गचिन्तामणि' इन दो ग्रन्थोंके प्रकाशमें आनेपर भी आपके नामको सार्थकताके लिए प्रत्येक विद्वान्के हृदयमें यह आशंसा विद्यमान थी कि आपका कोई न्यायका भी प्रत्य होना चाहिए। पर सौभाग्यसे आपका वह न्यायग्रन्थ 'स्याहादसिद्धि' उपलब्ध हो गया है और उसके द्वारा आपके नामको सार्थकता सिद्ध हो गयी है। इस तरह अब आएको कृतियोंमें 'स्याद्वादसिद्धि', 'क्षत्रच डामणि' और 'गद्यचिन्तामणि' ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। 'प्रमाणनौका' और 'नवपदार्थविनिश्चय' ये दो ग्रन्थ भी वादोभसिंहके माने जाते हैं, पर सामने न होनेसे उनके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। हाँ, 'नवपदार्थ निश्चय' के विषय में बनेकान्त वर्ष १० किरण ४-५ के आधारपर यह कहा जा सकता है कि वह इन, वादीसिंह सूरिकी रचना नहीं है। उसके समातिपुष्पिका बाक्यमें 'भद्रारक वादोभसिंहमूरि' को कृति प्रकट भी किया गया है।
उपलब्ध तीन कृतियोंका परिचय इस प्रकार है
१. स्याद्वादसिद्धि-ग्रन्थके नामकी सार्थकता उसके प्रतिपाद्य विषयोंसे स्पष्ट है । इसके १ जीवसिद्धि, २ फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि, ३ युगपदनेकान्तसिद्धि, ४ क्रमानेकान्तसिद्धि, ५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि, ६ सर्वज्ञाभाव. मिद्धि, ७ जगलतत्वाभावसिद्धि, ८ अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि, ९ अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि, १० वेदपौरुषेयत्वसिद्धि, ११ परत:प्रामाण्यसिद्धि, १२ अभावप्रमाणदूपण सिद्धि, १३ तर्कप्रामाण्यसिद्धि और १४ गुणगुणो अभेदसिद्धि इन १४ अधिकारों द्वारा अनुष्टप् छन्दमें प्रतिपाद्य विषयोंका निरूपण किया गया है। अधिकारों के अन्तमें जो पुस्तिकावाक्य हैं उनमें वादीभसिंह-द्वारा रचित होनेको स्पष्ट सूचना है, ग्रन्थ अपूर्ण है । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला
१. देखो, न्यायकुमुद चन्द्रोदयको प्रस्तावना, पृष्ठ : पार और 'जनसाहित्य और इतिहास' पृष्ठ २२३, द्वितीय संस्करण ।