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________________ २४५ - पप्रया सह सुखोपभोगः] षष्ठो कम्मः पयःपयोधेः, पद्मया तया सम स्फुटितपाटलकुसुमापोडपटुपरिमलविसरवासितरोदोविवराणि. प्रसरदुष्मलतरणिकिरणपरामर्शमर्मरितपक्ष्माणि, पटुतरातपकृतकोटरपुटपाकमन्दप्राणविष्किराणि स्फीतफलस्तवकभूरिभारनम्रशाखाम्रवणानि , चूडारत्नसंशयितवनवैश्वानरबिलेशयभुजङ्गानि, पत्रलानपद्मपण्डपिण्डितरोमन्थमन्थरवदनगोधनानि . दावदहनदाहविद्राणसारङ्गसङ्कलङ्घितमरुन्मार्गाणि, पानीयशालापन्नपथिकजनवाञ्छ्यमानसायाह्नानि, शुष्कसरसीविलोकननिराशशोकान्धसिन्धुरारब्ब- ५ करास्फोटानि रिक्तीकृतमहामहीधरनिर्झरसोतःसिरासंतानानि संज्वलितपतङ्गग्नावपावक प्रभापटलसमूह इव पाण्डुराणि धबलानि अम्बराणि वस्त्राणि यस्यास्तग्रा पक्षे फनपिण्डेन पाण्डुरं शुक्लीकृतमम्बरं व्योम यया तया पयःपयोधेः क्षीरसागरस्य वीच्येव लहयेव । अथ प्रैष्मकापमहानि विशेषयितुमाह-- स्फुटितति--स्फुटितानि विकसितानि यानि पाटलकुसुमानि 'गुलाब' इति प्रसिद्धपुष्पाणि तेपामापीडस्य शखरस्य यः पटुपरिमल उत्करसुगन्धिस्तस्य विसरेण समूहन वासितानि सुरमितानि सेदोवित्रराणि ग्रावा- १० पृथिव्यन्तरालानि पु तानि, प्रसरदिति-प्रसरन्त ऊप्मला उष्णा ये तरणिकिरणा रश्मिमालिरश्मयस्तेषां परामर्शन संस्पर्शन मर्मरितानि शुष्काणि पक्ष्माणि नयनरोमराजयो येषु तानि, पटुतरेति–पटुतरंण तिग्मतरेण मातऐन घर्मेण कृतो चिहितो यः कोटरे वृक्षविवरं पुटपाकस्तेन मन्दप्राणा मरणोन्मुरबा विकिराः पक्षिणी येषु तानि, स्फीतेति-स्मीता विस्तृता ये फलस्तबकाः फलगुच्छकास्तेषां भूरिमारेण प्रचुरभारेण नम्रशाखानि आभुग्नविटपानि आम्रवणानि रसालकाननानि येषु तानि, चूडति-चूडारत्नैः फणामाणिक्यः संशयित: १५ संशयविषयतापन्नो यो वन नैश्वानरी दावाग्निस्तेन विकेशयाः कृतबिल शयना भुजङ्गाः सर्पा येषु तानि, पन्नलेति---पत्रिका नूतनपत्रयुक्ता येऽनूपदुमा जलनायप्रदेशपादपास्तेपा पण्डे समूह पिण्डितानि एकन. स्थितानि रोमन्यमन्थरवदनानि चर्वितचर्वणमन्थरमुखानि गोधनानि येषु तानि, दावति--दावदहनस्य वनाग्नेहिन विद्राणा दरमुत्पतन्तो ये सारजसका हरिणसमूहास्तैलचितोऽतिक्रान्ती मरुन्मार्गो व्योम येषु तानि, पानीयेति–पानीयशालाः प्रपा आपन्नाः प्राप्ता ये पथिकजना अध्वगपुरुषास्तर्वाञ्छयमानानि २० अभिलप्यमाणानि सायाहानि येषु सानि, शुष्केति--शुपकसरसीणां निर्जलजलाशयानां विलोकनेन दशनेन निराशा अपगताशा अतएव शोकान्धा ये सिन्धुरा गजास्तैरारब्धाः करास्फोटा: शुलादण्डास्फोटा यंषु तानि, रिक्तीकृतेति----रिक्तीकृताः शून्यीकृता महामहीधराणां महापर्वतानां निरस्रोतसां वारिप्रवाहप्रवाहाणा सिशसंतानानां 'शिर' इति प्रसिद्धानां समूहा येषु तानि, संज्वलितेति--संज्वलिताः प्रदीप्ता ये पतङ्गप्रावाणः वाली होनेसे जो मलयाचलकी मेखलाके समान दिखाई देती थी और फेन समूह के समान २५ सफेद वस्त्रोस युक्त होने के कारण जो क्षीरसागरको तरंगके समान जान पड़ती थी ऐसी पद्माके साथ ग्रीष्मऋतुके कुछ दिन व्यतीत किये । वे प्रीष्मऋतुके दिन जिनमें कि खिले हुए गुलाबके फूलों की मालाओंकी जोरदार सुगन्धिके समूहसे आकाश और पृथ्वीका अन्तराल सुवासित हो रहा था। फैलती हुई सूर्यकी गरम-गरम किरणोंके स्पर्शसे जिनमें नेत्रोंकी बिरूनियाँ सूखकर मर्मर हो गयी थीं। जिनमें अत्यन्त तीक्ष्ण संतापके द्वारा कोटरमें किये हुए पुटपाकसे पक्षी ३० मन्दप्राण-निश्चेष्ट हो रहे थे। बड़े-बड़े फलसमूह के बहुत भारी भारसे जिनमें आम्र वनोंकी शाखाएँ नम्रीभूत हो रही थीं। चूड़ारत्नोंमें दावानलका संदेह होनेसे जिनमें साँप बिल में ही शयन करते रहते हैं । जलाशयके समीपवर्ती छायादार वृनसमूह के नीचे एकत्रित होकर जिनमें गायोंके मुख रोमन्ध क्रियासे मन्थर हो रहे थे। दावानलकी छाँह से भागते हुए भृङ्गसमूह जहाँ आकासको लाँच रहे थे-आकाश में लम्बी छलाँग भर दौड़ रहे थे। प्याऊओंके ३५ समीप आये पथिकजन जिनमें सायंकालकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सूखे सरोवर के देखनेसे निराश एवं शोकसे अन्धे हाथी जिनमें अपनी सँडे हिला रहे थे। जिनमें बड़े-बड़े पर्वतके झरनों के प्रवाही झिरोंके समूह खाली हो गये थे। देदीप्यमान सूर्यकान्तमणिकी अग्निते
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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