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________________ २४६ गचिन्तामणिः [१६३ जीवधरस्य - - -- .. लोढजाङ्गलद्रुमाणि, घोरतपांसोव मुक्ताहारशरीराणि, राजहृदयानीव तेजोऽधिकद्वेषोत्पादीनि, अपत्यानीव सदाकाभितपयांसि, पतितकर्माणीवाधस्तलावरोहणकारीणि, नाकस्त्रोमनांसीव मरुदोत्सुक्यविधायोनि, अतिरूक्षाणि ग्रेष्मकाणि कानिचिदहानि जीवंधरः। $ १६३. अथैवं मनोरथदुरासद सततं तया सारङ्गशा सभ शमनुभवन्नपि विषयेष्व. ५ सक्ततामात्मनो विवरोतुमिव बिजयासूनुः, विषयान्तरमन्तहित एवं गन्तुमनाः समजनि । ताव. तास्य तिरोधाय जिगमिषारनुकूलतां चिको परिवावसितदिवसब्यापारशेषः पूषा निकपास्तशैलसूर्यकान्तपाषाणास्तेषां पावकस्यानलस्य प्रभाषटलेन कान्तिसमूहेन लोढा व्याप्ता जाङ्गलमा बनानोकहा येषु तानि, घोरति-कठिनतपासीय मुनाहाराणि त्यतमोजनानि शरीराणि येषु तानि, पक्षे मुताहारमुका दामभिरुपलक्षित नि शरीराणि यंपु तानि, राजेति--राज्ञा हृदयानि राजह दयानि तद्वत तजसा पराक्रमेण पक्ष १० दीप्त्याऽधिकेयु द्वेषं विप्रहमुत्पादयन्तीत्यवंशीलानि 'तंज: पराक्रम दीप्तो प्रभाव एल शुक्रयोः' इति विश्व लोचनः, अपत्यानांव सूनव इव सदाकांक्षितं पयो जलं पक्षे दुग्धं येपु तानि, पतितकर्माणीव पापकार्याणांव अधस्तलेषु नरकेषु पक्षे भूगृहादिनीचैःस्थानेष्ववरोहणमत्रतरणं कुर्वन्तीत्यबंशीलानि, नाकबामनांसीव स्वर्गस्त्रीचतांसीव मरुस्सु देवपु पक्षे बालेवास्सुक्यं सतृप्णत्वं विदधतीत्येवंशीलानि, 'मरुस्पुंसि सुरे बाते' इति विश्वलोचन: अतिक्षाणि प्रतिग्मानि। १६३. अथैव मिति-अथानन्तरम् एवं पूर्वामप्रकार मनोरथैरभिलषितर्दुरासदं दुष्प्राप्यं शं सुखं तया सारङ्गदृशा मृगनेच्या पद्मया समं सार्धम् अनुभवम्नपि विषयेषु पम्नेन्द्रियविषये स्पर्शादिषु 'स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दात्तदर्थाः' इति तत्त्वार्थाधिगमे सूत्रम् । असकताम् अनास कता तिवरीतुं प्रदयितुमिव विजयासून वंधरः अन्तर्हित एव गूद एव विषयान्तरं देशान्तरं गन्तुमना गन्तुमुखतः 'तुंकाममनसोरवि' इति मकारस्य लोपः समजनि समभूत् । तावतंति–तावसा तावत्कालंन तिरोधायाऽन्तहितो भूत्वा जिगमिषो१० प्रभापटलसे जहाँ वनके वृक्ष व्याप्त हो रहे थे। जी घोर तपके समान थे क्योंकि जिस प्रकार घोर तप मुक्ताहारशरीर अर्थात् आहारका त्याग करनेवालं शरीरसे युक्त होते हैं, उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी मुक्ताहार शरीर थे अर्थात् मोतियोंके हारसे सहित शरीरको धारण करनेवाले थे । जो राजाओंके हृदयों के समान थे क्योंकि जिस प्रकार राजाओंके हृदय तेजो. धिकद्वेपोत्पादी-अधिक तेजस्वी मनुष्यों के साथ द्वेष उत्पन्न करनेवाले होते हैं उसी प्रकार २५ ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी तेजोधिकद्वेषोत्पादी--अधिक उष्णपदार्थाक साथ द्वेष उत्पन्न करने वाले थे । जो बच्चोंके समान थे क्योंकि जिस प्रकार बच्चों में सदा पय-दुधकी आकांक्षा रहती हैं उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके उन दिनों में भी सदा पय-पानीकी आकांक्षा रहती थी। जो पतित मनुष्योंके कााँके समान थे क्योंकि जिस प्रकार पतित मनुष्यों के कार्य अधस्तल--- नरकमें अवतरण करानेवाले होते हैं उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी अधस्तल-नीचेके ३० ठगई स्थानों में अवतरण करानेवाले थे। जो देवाङ्गनाओंके मनके समान थे क्योंकि जिस प्रकार देवाङ्गनाओंके मन मरुत्-देवोंकी उत्सुकताको करनेवाले हैं उसी प्रकार श्रीमऋतुके वे दिन भी महत्-वायुकी उत्सुकताको करनेवाले थे और जो अत्यन्त रून थे । १६३. इस प्रकार जीवन्धरस्वामी उस मृगनयनांके साथ निरन्तर यद्यपि मनोरथोंके लिए भी दुर्लभ सुखका अनुभव कर रहे थे तथापि विपयोंमें अपनी अनासक्ति बतलानेक ३१ लिप ही मानो ये गुप्त रूपसे दूसरे देश में जाने के लिए उत्सुक हो गये। उसी समय छिपकर जाने की इच्छा करनेवाले जीवन्धरस्वामीको अनुकूलता करने के लिए ही मानो सूर्य दिनका १. क० ख० ग० अनुकूल कालचिकीपरिष।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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