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________________ - पद्ममा सह सुखोपभोगः ] षष्टो कम्भः २४७ मलम्बत | आपतयालु निशानिशाचरीनिशातशूलशिखासमुत्खातं वासरस्य हृदयमिव स्थपुटितप्रस्थप्रस्थानविवाहनिवहविहृतस्यन्दनवि सूस्तमस्तगिरिगैरिकपङ्कचयखचितं रथाङ्गमिव च पातङ्गमङ्गमदृश्यत । ततस्तेजोनिधिरपि विनिवारितदोषोऽपि वारुणिसङ्गात्किमपरं रविरधः पपात । पद्मिनीरजः स्पृष्टमम्बरमपहाय मज्जत्यब्जिनीभुजङ्गे जलधिवेलान्ते' संततलाक्षिकयवनिकालक्ष्मीं बभार संध्या । $ १६४. ततश्च सवेगपत पयोधिपातपादितशक्ति पुटम्वतोत्थितमुक्तोत्रा इव निर्दयर्गन्तुमिच्छारस्य सात्यंधरे अनुकूलन कति समापितो दिवसव्यापारशेषो येन तथाभूतः पूषा सूर्य अस्तशैलमस्ताचलं निकषा तस्य समीपे 'अमितः परितः स मयानिकपाहाप्रतियोगेऽपि इति द्वितीया, अलम्बन लम्बितोऽभूत् । आपतयाविधि - आपततीत्येवंशीला आपतयालुरागमनस्वभावा या निशानिशाचरी क्षपाक्षपाचरौ तस्था यत् निशातं तीक्ष्णं शूलं तस्य शिखयाग्रभागेण समुल्यातं १० वासरस्य दिवसस्य हृदयमिव स्थपुटितानि नतोन्नसानि यानि प्रस्थानि शिखराणि तेषु प्रस्थानं प्रयाणं तेन विला दुःखीभूता ये चाहा अश्वास्तेषां निवहेन समूहेन विहतं प्रोटितं यरस्यन्दनं रथस्तस्माद् विस्रस्तं पतितम् अस्तगिररस्ताचलस्य गैरिकपङ्कचयेन धातुकसमूहेन खचितं निःस्यूतं रथाङ्गमित्र चक्रमिव एतस्यैवं पावकं सूर्यसम्बन्धि अङ्ग त्रिम्यम् अदृश्यत । तत इति ततस्तदनन्तरं तेजोनिधिरपि पराक्रमभण्डारोऽपि पक्षे दोसि भाण्डारोऽपि विनिवारिता दूरीकृता दोषा क्षपा पक्षेऽवगुणा येन तथाभूतोऽपि १५ वारुणीसङ्गात् पश्चिम दिशा संसर्गात् पक्षे कादम्बरीसंसर्गात्, अपरं किम्। रविरपि सूर्योऽपि अधः पपात पतति स्म । पद्मिनीति पश्चिम्याः कमलिन्या रजसा परागेण स्वम् अम्बरं गगनम् अपहाय त्यक्स्वा अब्जिनीभुजङ्गे सूर्ये पक्षे पद्मिनी पद्मिनीनाम नायिका तस्या रजसार्तवेन स्पृष्टमम्बरं वस्त्रम् अपहाय अब्जिनीभुजङ्गे पद्मिनीनायिकात्रिये जलधिवेलान्ते सागरतटे मज्जति सति स्नानुं प्रविशति सति संध्या पितृप्रसूः संतता समन्ताविस्तारिता या लाक्षिकयवनिका लाक्षारागरकयवनिका तस्या लक्ष्मीं शोभां बभार ! ६४. ततश्चेति ततश्व तदनन्तरं च सवेगः सरयः पतङ्गस्य सूर्यस्य यः पयोध पातस्तेन पाटितेभ्यो विदारितेभ्यः शुक्तिपुटेभ्यो मुक्तोस्थिता आदी मुक्ताः पश्चादुत्थिता मुक्तोकरा इम मौक्तिक - समस्त कार्य समाप्त कर अस्ताचल के निकट जा पहुँचा । उस समय सूर्यका शरीर ऐसा दिखाई देता था मानो आनेवाली रात्रिरूपी राक्षसीके तीक्ष्ण शूल के अग्रभागसे उखाड़ा हुआ दिनका हृदय ही हो अथवा ऊँचे-नीचे शिखरांपर चलने से विह्वल घोड़ोंके समूह से तोड़े हुए रथसे २५ टूटकर गिरा अस्ताचलकी गेरूकी दलदल में फँसा चक्र ही हो। तदनन्तर जिस प्रकार अनेक दोषोंका निराकरण करनेवाला तेजस्वी पुरुष भी वारुणी - मदिरा के संगसे नीचे गिर जाता है उसी प्रकार और क्या विनिवारितदोष --रात्रिको दूर करनेवाला (पक्ष में अनेक दोपोंका निरा करण करने वाला) तथा तेजोनिधि- प्रतापका भण्डार (पक्ष में उष्णताका भण्डार) सूर्य भी वारुणीपश्चिम दिशा (पक्ष में मदिरा) के संगसे नीचे गिर गया। जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी स्त्रीके रज - आर्तव से हुए हुए अम्बर- वस्त्रको छोड़कर जलाशय में अवगाहन करता है, उसी प्रकार सूर्य भी कमलिनियों की रज - पराग (पक्ष में आर्तव ) से हुए हुए अम्बर - आकाश ( पक्ष में वख) को छोड़कर समुद्र जलके तट में स्नान करने के लिए ही मानो निमन्न हो गया । और संध्या लाखके रंग से रँगे फैले हुए परदाकी शोभा धारण करने लगी । ३० § ६६४. तदनन्तर आकाश में तारे चमकने लगे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो वेगसहित ३४ सूर्य के समुद्र में पड़ने से फूटी हुई सीपोंके पुटसे छूटकर आकाश में उछटे हुए मोतियोंके समूह 4 १. भ० जलधिजलवेलान्ते । २. क० ख० ग० 'पतङ्ग' पदं नास्ति । ५ २०
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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