SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्यचिन्तामणिः [१६८ प्रातःकाल - श्रवणानि दृप्यच्छाक्यरशृङ्गकोटिविघटनविषमिततुङ्गवच्छानि विचित्रसुमनःपरिमलमांसलसमोर संचारसुरभीकृतानि कानिचित्काननानि नयनयोरुपायनोचकार। तानि च क्रमादतिक्रम्य गच्छन्विक्रमशालिविविधपुरुपपरिपदः पारुण्यविरामाभिरामरामालंकृतस्यायत्नोपनतरत्न रजतजातरूपजातजात समृद्धडिण्डोरपिण्डपाण्डुरपुण्डरीकोद्भासिनः सलोलान्दोलितचारच मरबालमरुतःपरदुरासदसत्त्वाधिक५ नीर येषु नथाभूतानि यानि सरांति कासारास्तंग समुद्भिन्नानि विकसिनाजि यानि कुमुदकुचल यानि सिता. पितसरोरुहाणि तैमनोज्ञानि मनोहराणि, बिमलति-विमला निर्मला या वनापमा विपिनवाहिन्यस्तासा पुलिनेषु तटेषु पुञ्जिना एकत्रोपस्थिता ये कलहंसाः कादम्बास्तेषां सिनेन शब्देन रनिजतं प्रसन्नं श्रवणं श्रोत्रं ग्रेषु तानि, दृप्यदिति-दृप्यन्तो माद्यम्ती ये शाक्वरास्ता मवृषभारलेषां कोटिभिविषाणाग्रभागयंद विषरनं बिहारणं तेन विमिता उच्चावचीकृतास्नुनकच्छा उन्नतजलवायन देशा येषु तानि, विचिनेति१० विचित्राणि विवियानि यानि सुमनांसि पुष्पाणि तेषां परिमलेन सुगन्धिना मांसलः पुष्टो यः समीरः पवनस्तस्य संचारंग समन्ताद्गमनेन सुरभीकृतानि सुगन्धित नि । तानि चेति--तानि च काननानि क्रमान् क्रमेण भनेक्रम्य समुल्ला य गच्छन् जीबंधरो बिम्बितोऽनुकृतः क्षोणीपती राजा ग्रेन तथाभूतस्य दक्षिणदेशस्य दाक्षिणात्यजनपदस्य कमपि धोजिनालयं श्रीजिनेन्द्रायतनम् अद्राक्षीत् इति क्रियासम्पन्धः। अध दक्षिगदेशस्य विशेषणान्याह-विक्रमति--विक्रमशालिनी पराक्रमशोभिनी विविधपुरुषाणां नानाविध१५ राजपुरुषाणां पक्षे तनत्यनराणां परिषरसमूहो यस्मिस्तस्य, पारुप्यति--पारुण्यस्य कर्कश वस्य विगमेण समास्या अमिरामा मनोहरा या रामा रमण्यस्ताभिरलंकृतस्य रमणीयस्य, उभयत्र समानम्, भयत्नति---- भयत्नमनायासं यथा स्यात्तथोपनसं समुपस्थितं यद् रन रजत जानरूपजातं मणिहिरण्यसुवर्णसमूहस्तेन जातसमृद्धः सम्पन्नो यो डिण्डोरपिण्डः फेमसमहस्तेन पाण्दुराणि पाण्डुवर्णानि यानि पुण्डरीकाणि सित सरोरुहागि तैरदासते शोभत इत्येवंशीलस्तस्य पक्षे समानेन अप्रयासेनोपनतानि यानि रत्न-रजतजात२० रूपाणि मणिहिरण्यस्वर्गानि तेषां जातेन समन समृद्धं जातमिति जातसमृद्धं डिण्डोरपिण्डपाण्डुरं फंग समूहधवलं यत्पुण्डरीक छत्रं तेनोझासिनः 'पुपरीकं सिनच्छन्ने सिताम्भोजेऽपि भेषजे' इति विश्व लोचनः । सलीलेति--सलील सविभ्रमं यथा स्यात्तथान्दालितै: चारुचमरबालैः सुन्दरचमरमृगकेशर्मरुन एवनो यस्मिस्तस्य, पक्षे सलीहं यथा स्यात्तधान्दोलितैश्चारुचमरैः सुन्दरवालव्यजनवाजो मन्दो मरुत्पवनो यस्य खिले हुए सफेद और नील कमलोंसे मनोहर थे। जो जंगली नदियोंके स्वच्छ तटॉपर २५ एकत्रित कल हंसोंके शब्दोंसे कानों को प्रसन्न कर रहे थे। अहंकारसे पूर्ण बैलोंके सींगोंके अग्रभागसे खुदने के कारण जिनमें ऊँचे-ऊँचे कछार विपम ऊँचे-नीचे हो रहे थे और जो नाना प्रकारके फूलों की सुगन्धिसे परिपुष्ट वायुके संचारसे सुगन्धित थे। क्रम क्रमसे उपचनोंका उल्लंघन कर जाते हुए जीवन्धर स्वामी किसी राजाका अनुकरण करनेवाले उस दक्षिण देशमें पहुँचे कि जहाँ नाना प्रकार के पुरुषों की सभा पराक्रमसे सुशोभित थी (राजपक्षमें जिसके ३० कर्मचारी पुरुप विक्रम-विशिष्ट क्रम अथवा पराक्रमसे सुशोभित थे)। जो परुपताको . समाप्त करनेवाली सुन्दर स्त्रियोंसे अलंकृत था ( राजपक्ष में जो कोमलांगी सुन्दर स्त्रियोंसे अलंकृत था)। जो बिना प्रयत्न के प्राप्त होने वाले रत्न, चाँदी, और स्वर्णके समूहसे समृद्ध ही उत्पन्न हुआ था (राजपक्ष में जो अनायास ही प्राप्त हुए रत्न आदिसे समृद्ध ही उत्पन्न हुआ था)। जो फेन समूहसे सफेद पुण्डरीक-श्वेत कमलोंसे सुशोभित था ( राजपक्ष में जो ३५ फेन समूहके समान सफेद छत्रसे सुशोभित था।) जहाँ चमरी मृगके बालों को लीला सहित कम्पित करनेवाली वायु बहती रहती थी ( राजपाझमें लीला सहित बोले हुए सुन्दर चमरोंसे जहाँ हवा होती रहती थी)। जिसका निकटवर्ती प्रदेश दूसरोंके लिए दुष्प्राप्य
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy