SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्यचिन्तामणिः [ ७ सत्यंधरस्य - जलसद्मना सादरमुपपादितमनपहार्यकटाक्षशृङ्गाररत्नरमणीयमाभिरूप्यलक्ष्मीजन्ममहितमसितभूलतातमालवनलंखापरिष्कृतपक्ष्मवलं विलोचनमय दुग्धसागरयुगलमुपदर्शयता मुखेन मदनमपि मदयन्ती, मन्मथविलासदोलायमानेन प्रकृतितरलनयनहरिणनहनपाशसवर्णेन कर्णपाशेन बद्धशोभा, निशामुखेन कुसुमतारकास्फुरणानामभिनवजलधरेण विलासविद्युदुन्मेषाणामुन्मिषदन्धकारमेचकरुचा ५ मुखशशिसंभोगकौतुकसंनिहितशर्वरीशङ्गाबहेन केशहस्तेनापहसितंबहिबडिम्बरा, प्रतिनिधिरिव लक्ष्म्याः , प्रतापपूर्तिरिव सौभाग्यस्थ, समाप्तिभूमिरिव सौन्दर्यपरमाणूनाम्, मनोरथसिद्धिरिव क्षीरजलनिधिः क्षीरसागरः सुरासुराणां परिषदापहतः सासे यस्य सः, समुद्गतेन कालकूटगरलेन तन्नामप्रचण्डविपेण दृषित इति हेना: जल जलनिवासिना कुबरंगेत्यर्थः सादरं यथा स्यात्तथा उपपादित निर्माषितम्, अनपहार्याणि केनाप्यपहनुमोग्यानि यानि कटाक्षशृङ्गाररमानि से रमणीयम्, आमिरूप्यं १० सौन्दर्यमेव लक्ष्मीस्तस्था जन्मना महितं शोभितम् , असितया श्यामया अलतातमालवनलेखया भ्रकृति तापिच्छवनरेखया परिष्कृता शोभिता पक्षमबेला निमेषतटी यस्य सत, विलोचनमयं क्षेत्रात्मक दुग्धसागरयुगलं क्षीरसागरयुगम्, उपदर्शयता प्रकटयता मुखेन । मन्मथेति-मन्मथस्य कामस्य विलासदोलेवाचरतीति तथा तेन, प्रकृत्या निसर्गण सरले चपले नयने एव हरिणी तयो हनाय बन्धनाय पाश सवर्गः पाशसशस्तन । कर्णपाशेन रद्धा शोमा यस्याः सा । निशामुखेनेति-कुसुमान्येव तारका १५ उनि तासां स्फुरणानां समुदयामा निशामुदेन रजनीमुखेन, विलासा एवं विद्युतस्तासामुन्मेषाः स्फुर णानि तेषाम् अमिनवजलधरण नृतनमंघन, उन्मिपत् प्रकटीभवत् यदन्धकारं तद्वत् मंचका कृष्णा रुग यस्य तेन, मुखशशिना वदनचन्द्रेण सह संभोगस्य रतः कौतुकेन संनिहिता समीपमागता या शर्वरी तस्याः शतावहः संशयोत्पादकस्तेन कंशहरुन कशपार्शन, अपहसितो निन्दितो बर्हि यहाडम्बरी मपुर पिच्छविस्तारो अया सा। प्रतिनिधिरिवेति- लक्षयाः प्रतिनिधिरिव, सौभाग्यस्य प्रतापपूर्तिरिच, २० सौन्दर्यस्य परमाणवस्तेषां समाप्तिभूमिरिखावसानक्षेत्रमिय, पातिव्रत्यस्य सतीत्वस्य मनोरथसिद्धिरिख चन्दनके तिलकको धारण कर रहा था, जो ललाटरूपी अर्धचन्द्र बिम्बसे झरती हुई अमृतकी धाराका सन्देह उत्पन्न करनेवाली नासिकासे विभाजित था, 'क्षीर समुद्र का सार सुर और असुरोका समूह हरकर ले गया है साथ ही वह उत्पन्न हुए कालकूद विषसे दूषित है इस भावनासे ब्रह्माने बड़े आदरसे जिसकी रचना की थी, जो हरण न किये जानेवाले कटाक्ष २५ तथा श्रृंगार रूपी रत्नोंसे रमणीय श्रा, सौन्दर्यरूपी लक्ष्मीके जन्मसे सुशोभित था, और श्यामल भृकुटिलता रूप तमाल बनी रेखासे जिसकी विरूनी रूपी वेला सुशोभित थी ऐसे नेत्रस्पी क्षीरसागरके युगल को दिखला रहा था ऐसे मुखसे वह विजया रानी कामदेवको भी मइसे मत कर रही थी। जो कापावके बिलासके इलाके समान जान पड़ता था और स्वभावसे हो चपल नेत्ररूपी हरिणको वाँधने के लिए पाशके समान मालूम होता था ऐसे ३० कर्णरूपी पाशसे वह सुशोभित थी। जा फूलरूपी ताराओंके विकासके लिए रात्रिके प्रारम्भ भागके समान था, बिलासरूपा बिजली के कौंधने के लिए जो नूतन मेघ के समान था, उठतेहुए अन्धकारके समान जो काली कान्निको धारण कर रहा था, अथवा जो मुखरूपी चन्द्रमा. के साथ सम्भोग करनेके कौतुकसे पास में आयी रात्रिको शंका उत्पन्न कर रहा था ऐसे केश. पाशसे वह मयूरपिच्छके आडम्बरकी हँसी कर रही थी । वह विजया मानो लक्ष्मीकी प्रति३५ निधि थी, सौभाग्यके प्रतापकी पूर्ति थी, सौन्दर्य के परमाणुओंको समाप्तिका स्थान थी, पाति १ क० ख० ग० विद्युदुन्मेषिणां । २ क० ख० केशहस्तेनापहस्तित ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy