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________________ ४२० गचिन्तामणिः [ २० जीबंधरस्यसारार्थ तीर्थ करनामधेयमहाभागधेयफल विचित्रविविधगोपुरसालं शतमखशेलष सर्वसुलभपीयूषं रत्नरैरजतनिर्माण' द्विषड्योजनप्रमाणं द्वादशगणवेष्टितं शुनासोरचोदितधनदप्रतिष्ठितं प्रेक्षमाणमानस्तम्भिमानस्तम्भमभ्यथितार्थदाननिपुणनिधिकुम्भं सर्वजनजङ्घादघ्नजलोपेतजलाशयं वनशोभा कृष्टदेवाशयं पापासवनिवारणं पुण्यककारणं सर्वलोकशरणं समवसरण मासाद्य, मणिमयमिव ५ महोमयमिवादित्यम पमिव दैत्यमयमिव खेचरमयमिव भूचरमयमिव शर्ममयमिव धर्ममयमिव •सद्भिः अनुगतोऽनुगतो हुतं शीघ्र विवादिता दुरीला विदरलोको कदम निषि इक को येन तथा भूतम् , भद्रपरिणामेन कुशलभावेनाजिताः शोभिता ये भव्यलोका भविकजनास्तैः सेन्यं सेवनीयम्, भव्यानरमणीयं स्वभावसुभगम् , सकलसाराः सर्वश्रेष्ठा अर्था पदार्था यस्मिस्तत् , तार्थ करनामधेयस्य महाभागधेयस्य फलं प्रयोजनम्, विचित्रा नानावर्णा विविधा नेकप्रकारा गोपुरसाका प्रमुखद्वारपाकारा १० यस्मिस्तत् , शतमख इन्द्रः शैलूपो नटो यस्मिस्तत् , सर्वषां सुलभं पीयूषममृतं यस्मिात् , रत्नरैर जतस्वर्णनिर्माण रत्नधनरजतस्वर्णनिर्माणम् , द्विषड्यो जनप्रमाणं द्वादशयोजनप्रमाणम् बर्धमानस्वामिनः समवसरणस्य प्रमाणमेकयोजनमासीत् द्वादशयोजनपरिमितनिरूपणं भ्रान्तिमूलम् । भगवतो वृषभस्य समवसरणं द्वादशयोजनपरिमितमासीत्, द्वादशगणेदशसमामिवेधितं परिवृतम्, शुनासीरण पुरन्दरण चोदितः प्रेरितो यो धनदः कुबेरस्तेन प्रतिष्टितं रचितम्, प्रेक्षमाणानां पश्यतां मानं गर्व स्तम्नन्ति नाशयन्ति १५ तथाभूता मानस्तम्मा यस्मिस्तत्, अभ्यर्थितस्य धाञ्छितस्यार्थस्य दान वितरण निपुणा दक्षा निधिकुम्भाः कोषकलशा यरिंभस्तत्, सर्वजनानां निखिलनराणां जनादनेन प्रसृताप्रमाणेन जलेन सोनोपेताः सहिता जलाशया इदा यस्मिस्तत्, बनानामुद्यानानां शोभयाकृष्टो वशीकृतो देवाशयों देवाभिप्रायो यस्मिस्तत्, पापानां दुरितकर्मणामानव श्रागमनं तस्य निवारणं निरोधकम् , पुण्यस्य सुकृत स्यैककारणं प्रमुख निमित्तम्, सर्वलोकानां निखिलजनानां शरणं रक्षितृ 'शरणं गृहरक्षिम्रोः' इत्यमरः २० समवसरणम् भासाथ प्राप्य मणिमयमिव रत्नमयमिव, महोमयमित्र तेजोमयमिक, मादिस्यमयमिव सूर्यमयभिव, देस्यमयमिव देवधिशेषमयमिब, खेचरमयमिव विद्याधरमयमिव, भूचरमथमिव भूमिगोचरमानवमयमिव, शर्ममयमिव सुखमय मिद, धर्ममयमित्र वृषमयमिव, नृप्तमयमिव लास्यमयमिव, वाथरहे थे । वे चलते-चलते शीघ्र ही उस समवसरणमें जा पहुँचे जहाँ समस्त मनुष्योंके उपद्रव शीघ्र ही नष्ट हो चुके थे, जो उत्तम भावोंसे युक्त भव्य जीवों के द्वारा सेवनीय था, यथार्थमें २५ रमणीय था, जहाँके पदार्थ सबमें श्रेष्ट थे, जो तीर्थकर नामक महाभागके फल स्वरूप था, जिसका कोट चित्र-विचित्र एवं नाना प्रकार के गोपुरोंसे सहित था, जिसमें इन्द्र नट का कार्य करता था, जिसमें सबके लिए अमृत सुलभ था, रत्न स्वर्ण तथा चाँदीसे जिसकी रचना हुई थी। जो बारह योजन प्रमाण था, बारह सभाओंसे वेष्टित था, इन्द्र के द्वारा प्रेरित कुवेरने जिसकी रचना की थी, जिसके मानस्तम्भ देखनेवालोंके मानको रोकनेवाल थे, वहाँ निधियों के ३० कलश अभिलषित पदार्थ के देने में निपुण थे, जहाँ समस्त मनुष्योंके जंघा प्रमाण जलसे युक्त सरोवर थे, जिसने वनोंको शोभासे देवोंके हृदयको आकृष्ट कर लिया था, जो पाप कर्म के आसवको रोकनेवाला था, पुण्यका प्रमुख कारण था और सब लोगों के लिए शरण था। जो मणिमयके समान, तेजोमयके समान, सूर्यमयके समान, दैत्यमयके समान, विद्याधरमयके समान, भूमिगोचरियोंसे तन्मयके समान, सुखमयके समान, धर्ममय के समान, नृत्तमयके १. रत्नस्वर्णरजतनिर्माणमिति टि । २. देव विशेषमयमिव, टि० । * भगवान महावीरका समवसरण एक योजन विस्तृत था यहाँ जो बारह योजन प्रमाण कहा गया है वह सामान्य समवसरणको अपेक्षा कहा है।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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