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गधचिन्तामगिः
गद्यचिन्तामरिसके प्रमुख पात्र १. महाराज सत्यन्धर-हेमांगद देश और राजपुरी नगरीके राजा थे। कथानायक जीवन्धरके पिता हैं। प्रजा तथा मन्त्री आदि मूलवर्गको अपने अधीन रखते थे, अत्यन्त शूर-बीर थे, यशस्वी ये और अपनी दान-वीरतासे कल्पवृक्षकी गरिमाको भी मन्द करनेवाले थे, कुरुवंश शिरोमणि थे। शत्रुओंको जीतकर जब अपने राज्यको स्थिर कर चुके तब विषयासक्तिके कारण राज्य-कायंसे विमुख हो गये । राज्यका कार्य काष्ठांमार मन्त्री के स्वायत्त कर आप राग-रंगमें मस्त हो गये । राजाके भविष्यको समझनेवाले धर्मदत्त आदि मन्त्री राजाको हितावह उपदेश देते हैं और काष्ठांगारका भरोसा न करनेकी प्रार्थना करते हैं परन्तु विषयासक्तिकी प्रबलता और काष्ठांगारके ऊपर जमे हुए अपने विश्वासके कारण मन्त्रियोंके हितकर उपदेशको उपेक्षित कर देते हैं। अन्त में काष्ठांगारकी दुरभिसन्धिके शिकार हो मृत्युको प्राप्त होते है। राजाको धर्म, अर्थ और कामका पारस्परिक विरोध बचाते हुए प्रवृत्ति करना चाहिए । जहाँ इनके विरोधको उपेक्षा होती है वहाँ पतन निश्चित होता है। राजा सत्यन्धर इसके उदाहरण है।
२. विजयारानी-विजयारानी विदेहके राजा गोविन्द महाराजकी बहन और राजा सत्यन्धरकी प्रमुख रानी थी। 'यद्यपि राजा सत्यन्धरकी भामारति और अनंगपताका नामकी दो रानियां और भी थों 'परन्तु पतिका अगाध प्रेम इसे ही प्राप्त था। इसने तीन स्वप्न देखे जिनमें प्रथम स्वप्नका फल राजाकी मृत्यु थी। उसे सुनकर बहुत दुःखी हुई परन्तु राजाके उपदेशसे प्रणय-लोला पूर्ववत् चलती रही। राजा सत्यन्धरका पतन होनेपर श्मशानमें पुत्रकी उत्पत्ति हुई। विजयारानीका जीवन बड़ा कष्ट सहिष्णु और वित्तिय व्यग्र नहीं होनेवाला दिखता है। यात्मगौरवको तो वह प्रतीक ही जान पढ़ती है। राजाकी मत्यु और सद्योजात पूत्रका गन्धोत्कट सेठके यहां स्थानान्तरण होनेपर जब यक्षी उसे अपने भाईके घर जाने की सलाह देती है तब वह आत्मगौरवकी रक्षाके लिए उस सलाहको ठुकरा देती है और दण्डक वनके एक तपोवनमें तापसोके वेषमें रहना पसन्द करती है। उसमें एक नीति यह भी मालूम होती है कि सुदूरवर्ती प्रदेशमें वेषान्तरसे रहने में काष्ठांगारको उसका पता न चल सके। अन्यथा उसके रहते काष्ठांगार सदा संशयालु रहता और उसके नाशका प्रयत्न करता रहता । अन्तम पुत्रके साथ माताका मिलन होता है। पुत्र, पिताका राज्यसिंहासन पुनः प्राप्त करता है और विजयारानी पुनः अपने महलोंमें प्रवेश करती है। अन्त में विजयारानी आपिकाके व्रत धारण करती है। विजयारानीके जीवनमें सुख और दुःखका बड़ा सुन्दर समन्वय दिखाई पड़ता है।
३. काष्टांगार-काष्ठांगार बड़ा कुतघ्न मन्त्री है। राजा सत्यधरने जिसे मन्त्री पदपर आसीन किया और अन्त में अपना सारा राज्य-पाट भी जिसके स्वाधीन कर दिया उसका इस तरह कृतघ्न होना नोचताकी पराकाष्ठा है। केवल राज्य प्राप्त कर स्वायत्त होनेकी आकांक्षा मनुष्यका इतना पतन नहीं करा सकती इसका दूसरा कारण भी होना चाहिए, जिसे उत्तरपुराणमें गुणभद्राचार्यने स्पष्ट किया है। महाराज सत्यन्धरका एक रुद्रदत्त नामका पुरोहित था. जो भविष्यवक्ता भी था। -माने काष्ठांगारको बतलाया था कि राजा सत्यन्धरकी विजया रानीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र तुम्हारा प्राणघातक होगा। राजा सत्यन्धरके रहते वह विजया और उसके भावी पुत्रको नष्ट करने में समर्थ नहीं था अतः उसने सर्वप्रथम राजा-सत्यन्धरको ही नष्ट करनेका उपाय रचा। सत्यन्धरको मारकर वह उनके राज्यका अधिकारी हो गया । श्मशानमें उत्पन्न पुत्र उसी रात्रिको गन्धोत्कट सेठके आधीन हो गया और रानी विजया सुदूरवर्ती दण्डक बनमें तापसीके वेषमें रहने लगी। काष्ठांगारने समझा कि राजाको मैंने मार डाला है और रानी मयूर यन्त्र में बैठकर गयी थी अतः गिरनेपर उसका और उसके गर्भस्थ बालकका प्राणघात स्वयं हो गया होगा। इस प्रकार वह निश्चिन्त होकर अपना राज्य शासन चलाता है। आतंकसे किसीकी अकीति दबती
१. उत्तरपुराणके आधारपर ।