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प्रस्तावना
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नहीं है उलटी फैलती है। काष्ठांगारकी भी अकोति राजघातकके रूपमें सर्वत्र फैल गयी अतः वह अन्तमें विजयारानीके भाई गोविन्द महाराजके पास सन्देश भेजता है कि राजाका धात एक उन्मत्त हाथीने किया है बौर उसका कलंक मुझे लगाया जा रहा है बाप आकर हमारे इस कलंकका परिमार्जन कर दीजिए। तबतक जीवन्धर भी वयस्क होकर अपने मातुल गोविन्द महाराजके घर पहुंच चुके थे। काष्ठांगारके कपट पत्रका उपयोग करते हुए मित्र के नाते एक बड़ी सेना साथ लेकर गोविन्द महाराज काष्ठांगारके यहाँ आये। वहीं उन्होंने अपनी पुत्री लक्ष्मणसेनाका स्वयंवर रचा । जीवन्धरने चन्द्रकवेधको वेध कर लक्ष्मणाकी वरमाला प्राप्त की। इससे उत्तेजित हो काष्ठांगार भड़क उठा । इधर युद्धकी तैयारी पूरी थी अत: यद्ध हआ और काष्ठांगार उसमें मारा गया। गद्यचिन्तामगिमें काष्ठांगारका उल्लेख प्रतिनायकके रूपमें है।
४. जीवन्धर-आप महाराज सत्यधर और विजयारानीके पुत्र हैं। उत्तर पुराणके उल्लेखानुसार पूर्वभवमें इन्होंने एक हंसके वच्चेको उसके माता-पिताके पाससे पकड़वा लिया था। बच्चे का पिता हंस इस दुःखसे दुःखी होकर आकाशमें केंकार कर रहा था अतः उसे इन्होंने अपने किसी सेवकसे मरवा दिया था। पीछे चलकर गद्यचिन्तामणिके अनुसार पिताके और उत्तर पुराण के अनुसार माताके उपदेशसे इन्होंने सोलह दिन बाद उस हंसशिशुको उसकी माताके पास भेज दिया। करनीका फल सबको मिलता है, जीवन्धरको भी उसके फलस्वरूप उत्पत्तिके पूर्व ही पिताकी मत्यु तथा मातासे सोलहवर्ष तकका विद्योह सहन करना पड़ा। जीवन्धर मोक्षगामी पुरुष थे, करुणा इनकी रग-रगमें भरी थी। कालकूट भीलके द्वारा गायोंके चरा लिये जानेपर जब गोपोंके परिवार काष्ठांगारके द्वारपर रोते हैं और उसकी अकर्मण्य सेना जब पराजित होकर लौट आती है तब आप अपने सखाओंके साथ जाकर भोलको परास्त करते हैं और गोपोंका पशुधन वापस लाकर उन्हें देते हैं। एक मरणोन्मुख कुक्कुरको देखकर उनकी करुणा जाग उठती है और वे उसे पंचनमस्कार मन्त्र सुनाकर कृतकृत्य करते हैं। कुत्तेका जीव मरकर सुदशन यदा होता है चोर वह कृतज्ञके रूपमें जीवन्धर कुमारके साथ बड़ा उपकार करता है। कृतघ्न काष्ठांगार और वश सुदर्शन यक्ष दोनोंके जीवनमें स्वर्ग और नरकके समान अन्तर दिखाई देता है । भीतमूर्ति गुणमालाकी रक्षाके लिए अकेले ही एक उन्मत्त हाबीसे जूझ पड़ते हैं। सर्पदंशसे मूच्छित कन्याका विषहरण करनेके लिए एक मान्त्रिकके रूपमें सामने आते हैं तो काष्ठांगारकी मृत्युके बाद बारह वर्ष तक प्रथिवीको करभारसे मुक्त कर देशवासियोंके लिए एक कल्पवृक्षके रूप में दिखाई देते है। आप बहा ही पवित्र और परोपकारमय रहा है। इनके जीवनकी विशेषतासे प्रभावित होकर ही वादीभसिंहने इन्हें क्षत्रचूड़ामणि-क्षत्रियोंके शिरोमणि अथवा राजराज-राजाओंके राजा जैसे शब्दोंसे संजित किया है। कालाकापुरुप न होनेपर भी पुराणकारोंने अपने पुराणों में इनका चरित्र अंकित किया है और कवियोंने इनपर गद्य-पद्यात्मक काव्य लिखे हैं। जीवन्धर चम्पूकारने तो स्पष्ट ही घोषित किया है-'जीवन्धरस्य चरितं दुरितस्य हन्त'-जीवन्धरका चरित पापको नष्ट करनेवाला है। आपने भगवान महावीरके समवसरणमें दीक्षा धारण कर राजगृहीके निकटवर्ती विपुलाचलसे मोक्ष प्राप्त किया है। जीवन्धर गद्यचिन्तामणिके नायक हैं।
५. गन्धोत्कट-जीवन्धरके जीवन में गन्धोत्कटको उनके पिताका स्थान प्राप्त है जिसे उसने बड़ी कुमलतासे निभाया है । यह राजपुरीका एक बड़ा सेठ था। इसके पुत्र अल्पायु होते थे अतः मुनिमहाराजसे इसने पूछा-क्या कभी हमारे भी दीर्घायुपुत्र होगा? मुनिराजने उसे सन्तोष दिलाया और कहा कि जब तुम अपने मृत पुषको छोड़ने के लिए श्मशान जाओगे तब तुम्हें एक भाग्यशाली उत्तम पुत्र प्राप्त होगा। ऐसा ही हुआ । जीवन्धरके बाद उसकी सुनन्दा स्त्रीसे एक स्वयंका भी नन्दाढ्य नामका पुत्र हो गया पर उसके जीवन में कभी यह देखनेको नहीं मिलता कि नन्दाढय उसका निजका पत्र है और जीवन्धर दसरेका। उसकी स्त्री सुनन्दा भी बड़ी उदात्त महिला है। इसके नीति-कौशलके विषयमें पीछे पादटिप्पणमें लिख आया है । इसके विषयमें एक लोकोक्ति याद आती है-'वानियोंसे सयानो सो दीवानो जानियो' ।