SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्यचिन्तामणिः [ २३॥ विदेहजनपदस्यश्चरमदेहप्रायनिवासिजनराश्रिततया विदेहाख्य इति विश्रुतं जनपदम् । २३२. तदनु चायं महाभागो विदितभागिनेयागमनमुदितेन राज्ञा मुहुराज्ञप्तर्जानपदैः पदे पदे स्वपदानुगुणं प्रमदभरेण प्रतिगृह्य प्रदयमानानि' मणिमौक्तिकमलयजप्रभृतीनि प्राभूतानि प्रेक्षमाण: प्रतिप्रसादवितरणप्रीणितलोकः पुनरुल्लोकलोककोलाहलमुखरितहरित हरिताश्वरथनिरोधनकर्मकर्मण्यहाबलोमिपेणानिमेषवृन्दारकदारणकुशलकुलिशपतनाकुल कुलशिलोच्चयरभयस्थानतयेवाश्निताम्, श्रियमिवाश्रितजनाभोष्टार्थपुष्टिकरीमबहुवल्लभात्वेन ततोऽपि बहुमताम्, सागरवेलामिव कलाधरैरपि मृगारपि भकल कैः कलङ्करहितैरिति विरोधः पक्ष वैदग्धीधररपि कालुप्यरहितः, अधिबीयरपि प्रभूत शुक्ररपि स्वबशेन्द्रियैः साधीनमेहनैरिति विरोधः पक्षे प्रभूतपराक्रमैरपि स्वाधीननेनादिहृषीकः, विरोधाभासः, चरम देहप्रायेाहुल्यन तद्भवमोक्षगामिभिः, निमानित भाभिवतया अधिष्ठिततया विगतो १० दहो यस्मिन्निति विदेहः स भारपा नाम सस्य तथाभूतं जनपदम् । २३२, तदनु चायमिति-तदनु तदनन्तञ्च अयं महाभागो महानुभावो जीवंधरी विदितं विज्ञातं यद् भागिनेयस्प भगिनीसुतस्यागमनं तेन मुदिती हृष्टस्तेन राज्ञा गोविन्दमहाराजेन मुहुर्भूयः भाज्ञप्तैः प्राप्तसूचनैः जानपदेशनपदाध्यक्षः पदे पदे प्रतिस्थानं स्वपदानुगुणं निजपदानुकूलं प्रमदभरेण हर्षसमूहन प्रतिगृह्य अग्रेगत्वा स्वीकृत्य प्रदर्शमानानि प्रकटीक्रियमाणानि मणिमौक्तिकमलयजप्रमृतीनि १५ स्त्रमुक्ताफल चन्दनादोनि प्राभृतान्युपायनानि प्रेक्षमाणो विकोकमानः प्रतिप्रसादस्य प्रत्युपहारस्य बितरणेन दानेन प्रोणिसाः संतर्षिता लोका येन तधाभूतः सन्, पुनरनन्तरम् उल्लोकेन सीमातीतेन लोककोलाहलेन जनकलकलरवेण मुखरिता वाचालिसा हरितो दिशो यस्यां ताम्। हरिताश्वस्य सूर्यस्य स्थस्य निरोधनकर्मणि निरोधकार्य कर्मण्या निपुणा हावली प्रासादपछिस्तस्यामिण समुप्तङ्गसदनब्याजनेति यावत् भनिमेषवृन्दारकस्य देवश्रेष्ठस्य शक्रस्य दारणकुशलं भेदनपटु यत् कुलिशं वनं तस्य पतनेन आकुला भीता ये कुलशिलोच्चयाः कुलाचलास्तैः अभयस्थानत व निर्मयधामस्वेनेव आश्रितां सेविताम्, श्रियमिव लक्ष्मीमित्र आश्रितजनानां शरणापमानाममोष्टार्थस्याभिप्रेतार्थस्य पुष्टिकरीम् उभयत्र समानां किन्तु अबहुवल्कमारवेन बहुस्वामिरहितत्वेन ततोऽपि मीतोऽपि बहुमतां श्रेष्ठ श्रीर्वहुवल्लमा राजधानीत्वबहुवल्लभेति व्यतिरेका, ( पक्ष में ऋर परिणामी नहीं थे ) जो कलाधर-चन्द्रमा ( पक्षमें कलाओं के धारक ) होकर भी अकलंक थे-कलंकसे रहित थे ( पक्षमें पापसे रहित थे) जो अधिक पराक्रमी होकर भी २५ इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेवाले थे तथा जो प्रायः कर चरमशरीरी थे। (२३२. तदनन्तर विदित हुए भानेजके आगमनसे प्रसन्न राजाने जिन्हें बार-बार आज्ञा दी थी ऐसे तद्-तद् जनपदों के निवासियोंने अपने-अपने पदके अनुरूप बड़े हुपैसे उनको अगवानी को थी तथा. मणि मोती और चन्दन आदिके उपहार समर्पित किये थे उन सब उपहारों को देखने और बदले के उपहार देनेसे लोगोंको प्रसन्न करते हुए महाभाग्यशाली ३० जीबन्धर स्वामी 'धरणातिलक' इस सार्थक नामको धारण करनेवाली उस राजधानीमें जा पहुँचे कि जहाँ लोगों के बहुत भारी कोलाहलसे दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं। सूर्यरथ के रोकने के कार्य में निपुण बड़े-पड़े महलोंकी पंक्तियों के बहाने जो ऐसी जान पड़ती थी मानो इन्द्र के विदारणपटु वज्रपातसे घबड़ाये हुए कुलाचलोंने हो भयरहित स्थान समझ उसका आश्रय ले रखा हो । जो यद्यपि लक्ष्मीके समान आश्रित जनोफे अभिलषित अर्थकी पुष्टि ५५ करनेवाली थी तथापि एकरवामिका होने के कारण उससे भी अधिक आदरको प्राप्त थी १. क० स० ग० प्रदृश्यमानानि ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy