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________________ गचिन्तामणिः [१८१ क्षेमपुर्याः - भविष्यन्त्याः क्षेमश्चियः प्रपञ्चत रहृदयकुब्जे पुजीभावादिव विरलभावमासेदुषि तमसि, सुभद्रस्य जामातृप्रयाणप्रबोधनायेव कू जत्सु कुक् टेषु, निकटगतां पत्नीमतिसंधाय गन्धर्वदत्तापतिर्भवभृतां प्रवृत्तेर्व्यवस्था विकलतां व्यवस्थापयन्निव तथाविधास्थास्पदमेकपद एव तां परित्यज्य प्रवज्याय प्रकृष्टवैराग्यः पुरुष इव यथेमियाय । १८२. तदनु सा च तनूदरी यातयामजातमाढस्वापा पुनः प्रबोधाभिमुखी तलिमतले तत इतोऽपि शनैः संवा माणशरोरा विशीर्यमाणचिकुरभार विगलदविरलकुमुपमाला सबिलासगात्रभन्नता पक्षामगुलीनिर्मकशी पदमा म यक्षिपक्षमणो, पतिमुखनिरीक्षणतत्परा पतिदेवता सलील मुत्याय यातलमधिनसन्त्येव संमुखागतयामिक मामलोचनामुखेऽपि मुखमनई गोचरीभविष्यन्न्याः क्षेमश्रियो निश्रुतिसुतायाः प्रपञ्चतरश्वासी विस्तृततरश्चासौ हृन्दगकुञ्जश्च मनोनिकुञ्जश्न १० तस्मिन् ' निजकु-जी दा म लतादिपिहितोदर' इत्यमरः पुनीभावादिश राशीभावाविव तमसि शासन्धकार विरल माय मल्पताम् आसेतुषि प्रापयति, सुभद्र स्त्र क्षेमश्रीपिनुः जामातुः प्रयाणस्य प्रबोधनं तस्या दूब कुक्कुयु ताम्रटेषु जरसु शब्द कुर्वाणेषु निकटगलां समीपस्तिताम् पनी झमश्रियम् अतिसंध्याय प्रतार्थ गन्धर्वदत्तातिर्भावधरी भवभृतां संसारिणां प्रवृत्ती व्यवस्थाबिकलतां चिनश्वरता व्यवस्था पयन्निव तथाविधायाः पूत्रों का काया आरवाया प्रीतेरास्पदं स्थानं तो क्षेमश्रियम् एकपद एव युगपदेव १५ परित्यज्य त्याया मात्रयायै श्रीक्षाय प्रकृष्टं वैराग्यं यस्य तथाभूत: पुरुष इव अथेटं स्वच्छन्दं यथा स्यातथा इयाय जगाम । १२, तलिभि- तदनु तदनन्तरं सा च तनूदरी कृशोदरी क्षेसनोः यात व्यतीते यामजाते प्रहरसमूहे गादः स्वाप। यस्यास्तथाभूता पुनः प्रबोधाभिमुश्री जागरणोद्यना सलिमतले शरयातले तत इतोऽपि यतस्ततोऽपि शनैर्मन्दं यथा स्पातथा संचार्यमाणं शरीरं यस्याः सा विशीर्यमाणात् चिकुर२० भाराशकलापात अविरले निरन्तरं यथा स्यात्तथा विगलन्ती पतन्ती अविरला कुसुममाला पुष्पवग्यस्याः सा, सविलासं सबिभ्रमं गात्रभजनं यस्याः सा, पञ्चशाखस्य हस्तस्याङ्गुल्यस्ताभिः मन्धराक्षिपश्मणी मन्थरनयनरोमराजी मन्दमन्द यथा स्यात्तथा मयन्ती, पत्युर्मुषस्य निरीक्षणे तत्परा पतिरेव देवता यस्यास्तथाभूता सलील सविभ्रमम् उत्थाय शय्यातलं तल्पपृष्ठमधिवसन्त्येव तन्न शयानैव संमुखागता । अन्धकारकी विषय होनेवाली क्षेमश्रीक विस्तृत हृदय-निकुंज में एकत्रित होने के कारण ही २५ मानो अन्धकार विरलयाबको प्राप्त हो गया था और सुभद्र सेठका जामाताके गमनकी सूचना देने के लिए ही मानो जब मुर्गे बाँग देने लगे तव समीपमें स्थित पन्नी क्षेमनीको धोखा देकर जीवन्धरस्वामी संसारी जीवोंकी प्रवृत्तिको अस्थिरताको प्रकट करते हुएके समान उस प्रकार की प्रीति के स्थान स्वरूप मश्रीको एकदम छोड़कर इच्छानुसार उस तरह चले गये जिस तरह कि तीन बैगाग्यको धारण करनेवाला पुरुप दीक्षाके लिए चला जाता है। ३० १ ८२. तदनन्तर जिसका उदर अत्यन्त कृश था, जिसकी रात्रिके गत पहरोंमें आनेवाली गाढ़ निद्रा समाप्त हो गयी थी, जो जागने के लिए, सन्मुख हा शय्यापर इधर-उधर धीरे-धीरे शरीरको चला रही थी, जिसके बिखरे हुए केशपाशसे फूलीकी अविरल मालाएं गिर रही थीं, जो विलासपूर्वक अंगड़ाई ले रही थी, जो हाथकी अंगुलियोंसे धीरे-धीरे मन्थर नेत्रोंकी बिरूनियाँ मल रही थी, जो पतिका मुख देखने में तत्पर थी, पनिको ही देवता समझती थी, ३५ लीलासहित उठकर शय्यातलपर ही बैठी थी, सामने आयी हुई पहरेदारिनके मुखकी ओर १. ५० प्रपञ्चहृदयकुञ्जे ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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