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________________ ५२ स्ववृत्तान्तकथनम् ] द्वितीयो कम्मः रोहण शिखरिणमभिनवशष्यशङ्कातरलितगृहणिपोत लिह्यमान गरुत्मदुत्पल घटित - तलमयूखपटलमतिचटुलपरिचारकच रणपुट रटित रत्नसोपान मवलम्बित मुक्तादामपुलकित वलभीनिवेशमितस्ततो दृश्यमानचामीकरपर्यं ङ्कपरिहसित मे रुशिलातलमभिनव सुधालेपधवलितोपरिभागरम्यं हर्म्यमविशत् । $ ५२ तत्र च प्रसार्यमाणसौवर्णामत्रविडम्बित मित्रमण्डले त्वरमाणपरिजनवनिताकर- ५ मुख्यपानमणिषकशुक्ति पाटलपरिमल सुरभि पानीयभरिततपनोयभृङ्गारके लिख्यमान मङ्गलचूर्णरेखानिवेद्यमानभोजनभुवि समुद्घाटितपञ्जरक्वादविनिर्गत क्रीडाशुकसारिका-परिवृत्तो वेषो येन तथाभूतं रोहणशिखरिणमित्र रोहणगिरिमिव, अभिनवशप्पाणां हरितहरितनूतन घासानां शङ्कया सन्देहेन तरकिताः सतृष्णीकृता ये गृहहरिणपोता गृहमृगशिशव स्तैर्लियमानमास्त्राद्यमानं गरमदुपलघटिततलस्य नीलमणिनिर्मितभूपृष्टस्य मयूखपटलं किरणपटलं यस्मिन् वत्, भतिचटुलैश्चपलतरैः परिचारकाणां सेवकानां चरणपुटै रटितानि शब्दितानि रत्नसोपानानि मणिमयपादावतारिका यस्मिन् तत्, अवलम्बितैः त्रस्तैर्मुक्तादामभिमौकिकस्स्रग्भिः पुलकिता युक्ता चलसीनिवेशा गोपानसी निदेशा यस्मिन् तत्, इतस्ततो यत्र तत्र दृश्यमानैरवलोक्यमानैश्चामीकरपर्यङ्कः स्वर्णासनैः परिहसितानि मेरुशिलातलानि यस्मिन् तत्, अभिनवेन नूतनेन सुधालेपेन चूर्णकद्रवलेपेन धवहितः शुक्लीकृतो य उपरिभाग उपरितमप्रदेशस्तेन रम्यं रमणीयं हर्म्यं सौधम् अविशत् इति पूर्वोक्तम् । १० ६ ५२. तत्र चेति-तत्र च हयें प्रसार्यमाणैर्विस्तार्यमाणैः सौवर्णामत्रैः कनकभाजनैर्विडम्बितं तिरस्कृतं मित्रमण्डलं सूर्यबिम्वं यस्मिन् तस्मिन् स्वरमाणाः शीघ्रतां कुर्वाणाः याः परिजनवनिताः परिचारिकास्तासां करैः पाणिभिः प्रसृज्यमानः स्वच्छी क्रियमाणो मणिचषकशुतिसंचयो रत्नमयपानपात्रशुक्तिसमूहो यस्मिन् तस्मिन् संमूर्च्छन् वर्धमानोऽतुच्छ: प्रचुरो यः पाटलस्म स्थलारविन्दस्य परिमलः सौगन्ध्यं तेन सुरभि सुगन्धि यत्पानीयं जलं तेन भरिताः पूर्णास्तपनीयभृङ्गारकाः स्वर्णकशा यस्मिन् २० तस्मिन् विख्यमानाभिर्मङ्गलचूर्णरेखाभिनिवेद्यमाना सूच्यमाना भोजनभूर्यस्मिन् तस्मिन् समुद्घाटितेभ्यः 1 वृत्तवेषमिव C ९७ १०. क सुरभित । १३ १५ सुशोभित भीतरी भाग में निरन्तर फैलाये गये मणियों के समूहसे जहाँकी भूमि शर्करासे युक्त थी और इसीलिए जो, अगस्त्य ऋषिने जिसका सब पानी पी लिया था ऐसे रत्नाकरसागर के समान जान पड़ता था, जो इन्द्रके वज्रके पुनः गिरनेके भयसे वेष बदलनेवाले रोहण गिरिके समान था, नूतन घासकी शंकासे चंचल पालतू हरिणोंके बच्चे जिसके गरुड़ २५ मणियों से निर्मित फर्श से निकलनेवाली किरणों के समूहको चाँट रहे थे, अत्यन्त चंचल परिचारकोंके चरणपुट से जहाँ रत्नोंकी सीढ़ियाँ शब्द करती रहती थीं, लटकती हुई मोतियों को मालाओं से जिसकी छपरियाँ पुलकित हो रही थीं, जहाँ तहाँ दिखाई देनेवाले स्वर्णके पलंगोंसे जहाँ सुमेरुके शिलातलोंकी हँसी उड़ायी जा रही थी, और नूतन कलईके लेपसे उज्ज्वल ऊपरी भागसे जो रमणीय था । ३० ५२. हाँ जैन जनका सर्वस्व होने के कारण वह गन्धोत्कटकी उस भोजनशाला में निःशंक होकर प्रवेश करने लगा जिसमें कि फैलाये जानेवाले सुवर्णमय पात्रोंसे सूर्यमण्डल - की विडम्बना हो रही श्री, शीघ्रता करनेवाली परिजनकी स्त्रियोंके हाथोंसे जहाँ मणिमय प्याले और तस्तरियों के समूह साफ किये जा रहे थे, जहाँ बढ़ती हुई गुलाबकी बहुत भारी सुगन्धिसे सुगन्धित जलसे स्वर्णनिर्मित लोटे भरे जा रहे थे, जहाँ लिखी जानेवाली मांगलिक चूर्णकी रेखाओंसे भोजनकी भूमि सूचित हो रही थी, पिंजड़ोंके किवाड़ खोल ३५
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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