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________________ - विवाहवृत्तान्तः] दशमो लम्भः इच महिषीमय इव महीपतिमय इवानन्दमय इवाशीमय इव विलसति विवाहमण्डपे, मण्डलाधीश्वरदत्तहस्तः गिलोच्चयशिखरान्नखरायुध इव हरिविष्टरादवरुह्य विरचितपरमेश्वरसपर्याञ्चितः स्वहस्तवितीर्णकाञ्चनः संचितसकलहोमद्रव्यसमिद्धपुरोभागेण पुरोधसा हुयमानसमित्कुशतिलयोजलाजजाल चटचटायमानेन हुताशनेनाहत इवासाद्य वेदी मुदितपुरोहिताभिहितजयजीवेत्याशिषा समं जीवंधरमहाराजः,स्वमातुलमहाराजेन महनीयलग्ने ससंतापं समापताम्, आत्मीयकोतिमिवाकल्प- ५ भासुगम्, प्रबलतपस्यामिवाबला प्रार्थनीयवेषाम्, वाक्षरश्रिमिव दोषोपसंहारसुलभाम्, सुरसुन्द इव राज्ञोमय इव, महीपतिमय इब नरेन्द्र मय इव, आनन्दमय इव हर्षमय इत्र, आशीमय इव विवाहमगडपे विलसति शोभमाने सति, मण्डलाधीश्वरंण देसी हस्तो यस्य तथाभूतः शिलोच्चयशिखरात पर्वतशलात् नखरायुध इव सिंह इव, हरिविष्टरात सिंहासनात् अवरुह्य विरचिता कृता या परमेश्वरसपर्या जिनेन्द्रार्चा तयाशितः शोभितः स्वहस्ताभ्यां स्वकराभ्यां नितीन प्रदर्स काजनं स्वर्ण येन तथाभूतः, १० संचितेन राशीकृतेन सककहोम द्रव्येण निखिलहवनगन्येण समिद्धो देदीप्यमानः पुरोमागो यस्य तेन, पुरोधसा पुरोहितेन हूयमानेन समयमाणेन समित्कुशतिलबीजकाजजालेन इन्धनदर्भतिज बीरभर्जितधान्य पुष्पसमूहेन चटचटायमानोऽव्यक्तशब्दविशेष कुर्वागस्तेन हताशनेन पावकेन माहूत इव ।कारित इव जीवधरमहाराजो वेदीम् भासाद्य प्राप्य मुदितन प्रसन्नेन पुरोहितेन पुरोधसा अभिहिना सूच्चरिता या जय जीवेत्याशीस्तया समं सार्ध स्वमाळमहाराजेन गोविन्दमहीपाले न मदनीयलग्ने प्रशस्त मुहूत ससंतोषं १५ यथा स्यात्तथा समर्पिता दत्ता लक्ष्मणां मातुल्ल सुताम् पयगायत उदबोढ इति कर्तृक्रियाकर्मसम्बन्धः । अथ लक्ष्मणाया विशेषणान्याह-सामयिकीर्तिमिव स्त्रसमज्ञामिन 'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः आकल्पमासुर्श कलपकालपर्यन्तं शोभिनी पक्षे आकलोरलंकारर्मासुरां देदीप्यमानाम्, प्रबलतपशामिद प्रकृष्टतपश्चर्यामिव भबलेनिलैरमार्थनीयोऽनमिलषणीयो वैषो मुद्रा यस्यास्तां पक्षेऽलाभिः स्वीमि: प्रार्थनीयो वेषो नेपथ्यं यस्यास्ताम्, बासरनियमिव दिवसलक्ष्मीमिब दोषाया रावेरुपसंहारंग संकोचेन २० अनुकरण कर रही थी। जब विवाह मण्डप ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सजावटमय ही हो, उपकरणमय हो हो, नृतमय हो, वादिन्नमय ही हो, राज्ञोमय ही हो, राजमय ही हो, आनन्दमय हो हो, और आशीर्वादमय ही हो तब मण्डलाधीश्वरके द्वारा जिन्हें हाथका सहारा दिया गया था ऐसे जीवन्धरस्वामी पर्वतके शिखर से सिंह के समान सिंहासनसे नीचे उतरे। उन्होंने परमेश्वर की पूजा की, अपने हाथसे सुवर्ण का दान दिया २५ और एकत्रित की हुई समस्त होमकी सामग्रीसे देदीप्यमान अग्रभागसे युक्त पुरोहितके द्वारा होनेवाले समिधा, कुशा, तिलबीज तथा लाईके समूहसे चट-चट शब्द करनेवाली अग्निके द्वारा बुलाये हुए के समान वे वेदीपर पहुँचे । वहाँ हर्षसे युक्त पुरोहितके द्वारा उच्चरित जय जीव आदि आशीर्वाद के साथ जीवन्धर महाराजने अपने मामा गोविन्द महाराज के द्वारा उत्तम लग्नमें सन्तोषपूर्वक दी हुई लक्ष्मणा नामक कन्याको विवाहा । ३० वह लक्ष्मणा उस समय जीवन्धर महाराजको कीति के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति आकल्पभासुरा-कल्पकाल नुक देदीप्यमान रहनेवाली थी उसी प्रकार लक्ष्मणा भी आकल्पभासुरा- आभूषणोंसे देदीप्यमान था। अथवा प्रवल तपस्याके समास जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार प्रवलतपस्या अबलाप्रार्थनीयवेपा-निर्वल मनुष्यों के द्वारा अप्रार्थनीय वेपसे युक्त होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी अबलाप्रार्थ- ३५ नीयवेपा-स्त्रियों के द्वारा प्रार्थनीय वेपकी धारक थी। अथवा दिनकी लक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार दिनकी लक्ष्मी दोपोपसंहारसुलभा--दोपा-रात्रिके उपसंहारसे सुलभ
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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