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________________ । १९२ पद्यचिन्तामणिः [ २६२ जीबंधरस्यरीमिब साभरणजाताम्, मृगयामिय वरावधसंपन्नाम्, मुनिजन मनोवृत्तिमिव चरणरक्ताम्, ब्रह्मस्तम्भाकृतिमिव कृशतरविलग्नाम्, शरदमिव विमलाम्बरविराजिनीम्, अध्वरसंपदमिव सुदक्षिणाम, सुराज्यनियमिव चारुवर्णसंस्थानाम्, वनराजिमिव तिलक भूषितां बहुपत्रलतां च, नक्षत्र राजिमिव रुचिरहस्तामुज्ज्वलश्रवणमूलां च, हव्यवाहज्वालामिव काष्ठा ङ्गारवधिनी भूतिमादिनी च, 'यदि ५ सुलभा सुमाया ताम् पक्षे दोषाणां दुगुणानामुपसंहारंग' नाशेन सुलमा सुप्राप्या ताम्, सुरसुन्दरीमिव देवान्नामिव सामरणा सालंकारा जाता समुत्पनेति सामरजाना ताम् पक्षे आमरण जातेनालंकारसमहेन सहिता साभरणजाता ताम्, मृगयामिव आखेटकीहामिव वराइवधेन शुरघातेन संपक्षा ताम् पक्ष चन्द्रकान्त्रनियन्त्रितवराहाकारपुत्तलिकानां वधेन संपन्ना प्राप्ता ताम्. मुनिजनस्य तपोधनस्य मनोवृत्ति. मिव चरणरका चरणे चारिने रमा लीना तां पक्षे चरणयोः पादयो रका रकवर्गालाम, ब्रह्मस्तम्भकृतिमित्र १. लोकाकृसिमिव कृशतरी रज्जुप्रमितो विसग्नी मध्यभागो यस्यास्तां पक्षे कृशतरोऽतिसूक्ष्मो बिलग्नः कटि प्रदेशो यस्यास्ताम्. शरदमिव शरहतुमिव विमलाम्बरविराजिनीन् विमलेन रजोरहितेन अम्बरेण नमसा विराजिनी शोभिनीम् पक्षे विमकाम्चरैरूजाचकवस्त्रविराजिनी शोभिनीम्, अध्वरसम्पदमिव यज्ञसम्पत्तिमिव सुदक्षिगां सुप्ड दक्षिणा दानं यस्यां तां पक्षेऽतिशयेन दक्षिणा सरला ताम्, सुराज्यश्रियमिर इसमराज्य लक्ष्मीनिव चारुवर्णसंस्थानाम् धारु सुन्दरं वर्णानां ब्राह्मणादीनां संस्थानं सम्यक् स्वितिर्यस्यां ताम् पक्ष १५ वारुणी मनोहरे वर्ण संस्थाने रूपाकृती यस्यास्ताम्, वनराजिमिव वनपछितामिव तिलकभूपितां बहुपत्रलतां च तिलकै; क्षुरकवृभूपितामलंकृताम् बह्वयः पत्रलताः पर्णवलयो यस्यां तां च, पक्षे तिल केन विशेषपत्रेण . भूषितामलकृतां मम जनदताः सुमन वरचितमोर केसः यस्यास्तथाभूतां च, नक्षत्रराजिमिव तारानतिमिव रुचिरो मनोहरो हस्तो हस्तनामनक्षत्रं यस्यां ताम् उबले देदीप्यमा श्रवणसरे तलाम नक्षत्रे यस्यां साम् पक्षे रुचिरः सुन्दरी हस्तः पाणियस्यास्ताम् उचलमतिमार श्रवणलं कर्णमूल २. यस्यास्त हव्यवाहज्वालामिव पायकज्वालामिव काष्ठानां दारुणामकारेण वर्धत इत्येवंशीला ताम्, होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी दोषोपसंहारसुलभा-दोषोंके उपसंहार-संकोचसे सुलभ थी। अथवा सुर-सुन्दरीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार सुरसुन्दरी साभरणजाता--आभरण सहित उत्पन्न होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी साभरणजाता-आभूषणों के समूह सहिन थी। अथवा मृगया-शिकारके समान थी क्योंकि जिस प्रकार मृगया बराइवधासम्पन्ना२१ शकरके वधसे सम्पन्न होती है, उसी प्रकार लक्ष्मणा भी बराहधसम्पन्ना-वराह यन्त्रके वधसे सम्पन्न हुई थी। अथवा मुनि जनोंकी मनोवृत्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार मुनियोंकी मनोवृत्ति चरणरक्ता-चारित्रमें अनुराग रखनेवाली होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी चरणरक्ता-पैरोंसे लालवर्ण वाली थी। अथवा लोककी आकृतिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार लोककी आकृति कृशतरविलग्ना अत्यन्त कृशमध्यभागसे सहित है उसी प्रकार ३. लक्ष्मणा भी कृशतरविलग्ना-अत्यन्त पतली कमरसे सहित थी । सायचा शरद् ऋतुके समान थी क्योंकि जिस प्रकार शरद् ऋतु विमलाम्बरविराजिनी-निर्मल अकाझसे सुशोभित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी विमलाम्बरविराजिनी-निमेल वस्त्रांसे सुशोभित थी। अथवा यज्ञ संपदाके समान थी क्योंकि जिस प्रकार यज संपदा सुदक्षिणा-उत्तम दक्षिणा सहिन होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी सुदक्षिणा---अत्यन्त सरल प्रकृति की थी। अथवा सुराज्यलक्ष्मी---उत्तम-राज्यलक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार सुराज्यलक्ष्मी चारुवर्णसंस्थाना-ब्राह्मणादि वर्गों की उत्तम स्थितिसे सहित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी चारवर्णसंस्थाना-सुन्दर रूप तथा आकृतिसे सहित थी । अथवा वनपंक्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार वनपंक्ति तिलकभूषिता-तिलक वृक्षोंसे विभूषित और बहुपत्रलता-अनेक पत्ती
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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