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________________ --विवाहवृत्तान्तः ] दशमी कम्मः ३९३ कुन्तलानामीदृशी कान्तिरल मलं संतमसकान्तिचिन्तामणिभिः । ईदृशं चेदाननमस्य प्रतिरूपकमेव कुमुदिनोपतिः । यदि भुजयोरोदृशं संस्थानमनयोरनुकरोत्येव कल्पशाखिशाखा । यद्ययमाभोगः स्तनयोः पोनयोः क्रीडागिरिरपरः कीदृशो भतुंः' इति निभृतं वल्लभपरिचारिकाभिरनुरागिणीभिरभिष्टूयमानाम् अमन्दमृगमदामप्यकिरातगोतिम्, अलकोद्भासिनीमपि नवुतिसंभवाम्, मधु भूति मम मादयति उत्पादयतीत्येवंशीका तां च, पक्षे काष्टाङ्गारच्छेदिनी भस्मोत्यादिकां च, 'वृधु वृद्धी' 'वृधु छेदने' इयुभयोः इलेषः 'भूतिमस्मनि संपदि' इत्यमरः, इलेषोपमा । यदि चेत कुन्तलानामलकानाम् ईदृशीयंभूत कानिनाहिस्तहि संतमसकान्तिचिन्तामणिभिः प्रगाढकृष्णवर्णचिन्तामणिभिः अलमलं व्यर्थ व्यर्थम् । चेयादे अाननं मुस्त्रमोशम् इत्यभूमे त कुदिपतिश्चन्द्रः अस्य माननस्य प्रतिरूपकमेव ।। प्रतिनिधिरेव ! यदि भुजयो होः ईरशं संस्थानमाकारस्तहि कल्पयाविशाखा कल्पतरुविटपः अनमोमुंजयोरनुकरोत्येव । यदि पीनयोः पीवरयोः स्तनयोः कु वयोः अयम् आभोगो विस्तारस्ताहि मर्तुवल्ल मस्य अपरोऽन्यः क्रीडागिरिः कीदृशः' इति निभृतं निश्चलम् अनुरागिणीमिः प्रीतियुमामिः वल्लभपरिचारिकाभिः प्रिय सेविकाभिः अभिष्टयमानाम्, स्तुतिगोचरी क्रियमाणाम्, अमन्दोऽत्यधिको मृगाणां हरिणानां मदो गर्यो यस्यां तथाभूनामपि न किरातानां गीतिरित्यकिरातगीतिस्ताम्, किरातगीतिस्तु मृगाणाममन्दं महमुत्पादयति सा तु न तयेति विरोधः पक्षे अमन्दः प्रचुरो मृगमदः स्त्री यस्यां तथाभूतामपि न विधन " किरातस्येव म्लेच्छस्येव गीतिर्यस्यास्तां सभ्यजनीसियुमामिति यावत् अथवा किरातो भूनिम्बः 'चिरायता' इत्यर्थः, तद्भिना अकटुका मधुरा गीतियस्याः सा 'किरात; पुंलि भूनिम्बे म्लेच्छस्वल्पशरीरयोः' इति विश्वलोचनः । मलकोमालिनीमपि अक्षका तनामनगरीमुद्रासतीत्येवंशका तयाभूतामपि नबुतिसंभवा नबुतो तन्नाम नगर्या संभव उत्पसियंस्पास्ताम्. याऽलकायानुत्पन्ना सा कथं नबुतो संभवेदिति विरोध: वाली लताओंसे सहित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी तिलकभूषिता-चन्दनके तिलकसे भूषित और कस्तूरी आदिसे बनी हुई अनेक पत्र और लताओंसे युक्त थी। अथ का नक्षत्र पंक्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार नक्षत्रपंक्ति रुचिरहता-देदीप्यमान हस्त नक्षत्रसे युक्त तथा उज्ज्वल श्रवणमूला-देदीप्यमान श्रवण और मूल नक्षत्रोंसे सहित होती है उमी प्रकार लक्ष्मणा भी रुचिरहस्ता--सुन्दर हाथोंसे सहित तथा उज्ज्वल श्रवणमूला--सुन्दर कर्णमूलसे युक्त श्री। अथवा अग्नि ज्वालाके समान थी क्योंकि जिस प्रकार अग्निज्वाला काष्टांगारवर्धिनी-लकड़ाके अंगार को बढ़ानेवालो और भूनिभाविनी-भस्म उत्पन्न करनेवाली होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी काष्टांगारवर्धिनी-काष्टांगारको छेदनेवाली और भूतिभागिनी-सम्पत्तिको उत्पन्न करनेवाली थी । 'यदि इसके केशोंकी ऐसी कान्ति है तो नोलमणियों की क्या आवश्यकता है ? यदि इसका ऐसा मुख है तो चन्द्रमा इसका प्रतिरूपक २० ही है । यदि भुजाओंका ऐसा आकार है तो कल्पवृन्न की शाखा इनका अनुकरण करती ही है । यदि स्थूल स्तनों का यह विस्तार है तो फिर भर्ताके लिए दूसरा क्रीडागिरि कैसा है ?' इस प्रकार अनुरागसे भरी भर्ताकी परिचारिकाएँ उसकी-स्तुति कर रही थीं। वह अमन्द मृगमदा-बहुत भारी भृगके मदसे सहित होकर भी अकिरातगीति थी-भीलोंकी गीतिसे रहित थी। पक्ष में बहुत भारी कस्तूरीसे सहित होकर भी मधुरगीतिसे सहित थी। अलको- ६५ झासिनी-अलका-कुबेरपुरीको सुशोभित करनेवाली होकर भी नवुतिसंभवा-नबुतिसे उत्पन्न थी । पक्ष में चूर्ण कुन्तलोंसे सुशोभित होकर भी नवुति मातासे उत्पन्न थी। मधुपाश्लिष्ट ५०
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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