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________________ गद्यचिन्तामणिः ५ राजपु - रम्भेण कर्णी सिरविणोनिमीलनबालातपेन कविकुल कलहंस कलस्वनश्रवणशरदवतारेण वितरणगुणेन मन्दयन्मन्दारगरिमाणम्, रणजलधितरणपोतपात्रेण कृपाणविषधर विहार चन्दन विपिनेन' क्षत्त्रधर्मदिनवृदयपर्वतेन पराक्रमेण क्रीतार्णवाम्बरः प्रयाणसमय चलदलघुच मूभारविनमितेन महीनिवेशेन फणाचक्रं फणाभृतां चक्रवर्तिनो जर्जरयन् दिशि दिशि निहितजयस्तम्भः कुमार ५ इव शक्तिशकलितभूभृद्विग्रहः शतमख इव सुमनसामेकान्तसेव्यः सुमेरुरिव राजहंसलालितपादः, २८ I मानस्तेन । वनीपका यात्रका एव चातकास्तेषां परिषद् समूहस्तस्या विषादविधर ने खेदापहरणे घनारम्भो मारम्भस्तेन । कर्णे दाने प्रसिद्ध नृपविशेषस्तस्य कीर्तिरेव कैरचिणी कुमुदिनी तस्या निमीलने संकोचने बालातपः प्रातःकालिकधर्मस्तेन । कविकुलान्येव कलहंसास्तेषां कलस्वनस्य मधुरास्फुटशब्दस्य श्रवणं तस्मै शरदवतारः शरतुप्रारम्भस्तेन । एवंभूतेन वितरणगुणेन दानगुणेन मन्दारगरिमार्ण कल्पवृक्षमाहात्म्यं १० मन्दयन् अल्पीकुर्वन् रणेति — रणजलधेः समरसागरस्य तरणे पोतपात्रं नौकायानं तेन । कृपाण एव विषधरी भुजङ्गस्तस्य विहाराय चन्दनविपिनं मलयजकाननं तेन । क्षात्रधर्म एव दिनकृत्सूर्यस्तस्योदय पर्वतः यूएवं स्वायतीकृता अर्णवाम्बरा पृथिवी येन सः । प्रयाणेति प्रयाणं विजययात्रा तस्य समये चलन् योऽलघुचम्भारो विपुलसैन्यसमूहस्तेन विनमितेन महीनिवेशेन फणाभूतां चक्रवर्तिनः शेषनागस्य फणा चक्रं सहस्रफणासमूहं जर्जरयन् । दिशि दिशि प्रतिदिशं निहिता निखाता १५ जयस्तम्मा येन सः । कुमार इव कार्तिकेय इव शक्त्या शक्तिनामकशस्त्रेण शकलितः खण्डितः भूभृतः गिरेर्विग्रहः शरीरं येन सः । नृपतिपक्षे शक्त्या पराक्रमेण शकलिताः खण्डितः भूभृतां राज्ञां विग्रहाः शरीराणि येन सः । शतमख इव पुरन्दर इव सुमनसां देवानां नृपतिपक्षे विदुषाम् एकान्तसेभ्यो नियमेन सेव्यः । सुमेरुरिव रत्नसानुरिव राजहंसेमेरालविशेषैलालिताः सेविताः पादाः प्रत्यन्तपर्वता यस्य सः । पर चिरकाल के लिए विश्राम करा रहा था। जिसका उसे निरन्तर परिचय प्राप्त था, याचक२० रूपी चातकों के खेडको दूर करने के लिए जो मेघके आरम्भके समान था, राजा कर्ण की कीर्ति रूपी कुमुदिनीको निमीलित करनेके लिए जो प्रातःकालके सुनहले घामके समान था, और कत्रियों के समूहरूपी कलहंसोंकी मधुरध्वनि सुननेके लिए जो शरद ऋतुके अवतार के समान था ऐसे दानरूप गुणके द्वारा वह कल्पवृक्षकी महिमाको मन्द कर रहा था अर्थात् कल्पवृक्षसे भी कहीं अधिक दानी था। जो रणरूपी सागरको तरनेके लिए जहाज के समान था, तलवार २५ रूपी सर्पके विहार के लिए चन्दनवृक्षोंका वन था और क्षत्रिय धर्मरूप सूर्यके उदय के लिए उदयाचल स्वरूप था ऐसे पराक्रमसे उसने समस्त प्रथिवीको खरीद लिया था। जब वह दिग्विजय के लिए चलता था तब प्रयाणकालमें चलती हुई बहुत बड़ी सेना के भारसे झुके हुए भूमण्ड के द्वारा वह शेषनाग के फणाओं के समूहको जर्जर कर देता था और प्रत्येक दिशामें विजयस्तम्भ खड़े करता जाता था । कुमार कार्तिकेय के समान था क्योंकि जिस प्रकार कार्तिकेय शक्ति-शकलित भूभृद्विग्रह शक्ति नामक शस्त्रसे कौञ्च पर्वत के शरीरको खण्ड-खण्ड करनेवाला था उसी प्रकार वह राजा भी शक्ति शकलित भूभृद्विग्रह - क्रमसे राजाओंके शरीर अथवा युद्धको नष्ट करनेवाला था । अथवा इन्द्रके समान था क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र सुमनसामेकान्त सेव्यः - देवोंका एकान्त सेवनीय होता है उसी प्रकार वह राजा भी सुमनसामेकान्त सेव्य विद्वानोंका एकान्त सेवनीय था । अथवा सुमेरुके ३५ समान था क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु राजहंसलालितपाद- - लाल चोंच और लाल चरणवाले हंसोंसे सेवित प्रत्यन्त पर्वतोंसे युक्त होता है उसी प्रकार वह राजा भी राजहंसलालित ३० --परा १ म० चन्दनविपित्रनेन ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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