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________________ गावचिन्तामणिः [ २०९ जीवंधरस्य - रोमन्थमालवालाम्भःपानलम्पटविहगपेटकविश्वासविधानकृते सेकान्तविसृष्टवृक्षमूलमुनिकन्यकाविवृत कारुण्यं दण्इकारण्याश्रममधिवसन्तीम्, मुषितामिव मोहेन, क्रीतामिव शिम्ना, वशीकृतामिव शुचा दुःखैरिवोत्खाताम्, व्यसनैरिवास्वादिताम्, तारिवापीडिताम्, चिन्तयेवाचान्ताम', क्लेशरिवावेशिताम्, अभाग्यरिबासंवि भक्तां मातरमत्यादरमभ्येत्य प्रणनाम । २०९. सा च नन्दनमुखेन्दुसंदर्शनेन सलिलनिधिरिवोद्वेलसंभ्रमा, प्रौढप्रेमान्धतया प्राप्तयौवनमप्यौरसमवरजं च सुचिरं परिरभ्य तत्परिरम्भणपर्यायपरमभेषजप्रयोगतस्तज्जननसमयशीलेनाग्निहोयधूमन हव्यवाहबनधूमेन धूम्ना मलिना ये फलभाराः फससमूहास्तैनम्रा नकभूरुहा नैकवृक्षा यस्मिस्तम्, वारेति -वासरावसाने दिनान्ते संक्षिप्ताः समाहाता नीवारा धमधान्यविशेषा यस्मिस्तथा भूतेऽङ्गणे चत्वरे निषादी समुपविष्टो यो मृगगण: कुरङ्गसमूहस्तेन नितिनी रचितो रोमन्यश्चर्यितचर्वणं १० यस्मिस्तम्, भालवालेति-भालवालानामावापानामम्भसो जलस्य पाने लम्पटाः संसका ये विहगाः पक्षिणस्तेषां पेटकस्य समूहस्य विश्वासः प्रत्य यस्तस्य विधान कृते करमाय; सेकान्त इति--सेकान्ते सेचनावसाने विस्थानि त्यकानि वृक्षमूलानि तरुमूलानि याभिस्तथाभूताभिमुनिकन्यकाभिस्तापसबालिकाभिर्विवृत प्रकरितं कारुण्यं दयालुत्वं यस्मितम् । अथ मातुविशेषणान्याह --मोईन ममत्वभावेन मुषितामिव चोरितामित्र, शिम्ना दौर्बलप्रेन क्रीतामिब गृहीता मित्र, शुचा शोकन वशीकृतामिय स्वनिम्नीकृतामिव, १५ दुःखैरुत्वातामिव समुत्पाटिनामिव, व्यसनैः कष्ट स्वादितामिव समनुभूतामिव, त पैः पश्चात्तापजनितौटण्यै रापीडितानिव दु:खिताभित्र चिन्तयानुध्यानेनाचान्तामिव जिया लोढाभिव, क्लेशवरावेशितामिय युक्तामिद अभाग्यः संविभन्नामिव कृतविभागामिव । २०६. सा चेति-सा च जोबंधरजननी नन्दनस्य पुत्रस्य मुखमेवेन्दुश्चन्द्रस्तस्य नंदशनेन सलिल निधिरिव जलधिरिय उद्वेलः सीमातिशायी संभ्रमी यस्यास्थाभूता प्रौढप्रेम्णा गाढानुरागैणान्धा २० निमीलितनन्ना तया प्रापयौवनमपि हरूप्रतारुण्यमपि और सं पुत्रम् अवरजं नन्दादचं च सुचिरं सुदीर्घकालं भारसे अनेक वृक्ष नम्रीभूत थे, जहाँ सायंकालके समय इकट्ठी की हुई जंगली धान्योंसे युक्त आँगनों में बैठे हुए मृगगण गेंथा रहे थे और जहाँ क्यारियोंका पानी पीने के लिए लम्पट पक्षीसमूहको विश्वास दिलाने के लिए सींचने के तत्काल बाद वृक्षोंका मूल छोड़ देनेवाली मुनिकन्याओंके द्वारा करुण भाव प्रकट हो रहा था ऐसे दण्डक वनमें निवास करनेवाली २५ माताके सम्मुख बहुत भारो आदरके साथ पहुँचे। उनकी वह माता ऐसा जान पड़ती थी मानो मोहसे लुटी हुई हो, दुर्बलतासे मानो खरीदी गयी हो, झोकके द्वारा मानो वश को गयी हो, दुःखोंके द्वारा मानो उखाड़ी गयी हो, व्यसनोंसे मानो आस्वादित हो, सन्तापसे मानो पीड़ित हो, चिन्तासे मानो आचान्त हो-चाँटी गयी हो, क्लंशोसे मानो युक्त हो और अभाग्यसे मानो परिपूर्ण हो । सामने जाकर उन्होंने उस माताको बड़े आदरसे प्रणाम किया। ३. ६२२६. पुत्रका मुखचन्द्र देखने से समुद्र के समान जिसका हर्ष वेलाको पार कर गया था ऐसी माताने गाढ़प्रेमसे अन्धी होनेके कारण तरुण होनेपर भी पुत्रका तथा उसके छोटे भाई नन्दायका चिरकाल तक आलिंगन किया और उनके आलिंगनरूपी औषधि के प्रयोगसे १.२० चिन्तयेवाकान्ताम् । २. म० अभाग्यरिया संविभक्ताम् । O सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् । । विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपापिनाम् ॥५१॥ आतपात्ययसंक्षिप्तनीवाराम निषादिभिः । मूगर्वतितरोमन्थमुटजाङ्गनभूमिगु ॥५२॥ रघुवंश, सर्ग १ - - -
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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