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________________ गचिन्तामणिः [ गन्धर्वदसातनुतथा पतनाभिमुखं मध्यमिव गुल्ती धारयन्ती, रोमावलोतमालवनराजोसंवर्धमानामृतसलिलकूरविभ्रमं नाभिमण्डलं बिभ्रती, कमनीयकायकल्पवल्लरीस्थूलस्तबकसंपदौ शोक्तेयहारचरों पयोघरी दधतो, विलाससमीरसमुत्थापितलावण्यतरङ्गिणीतरङ्गरेखा रमणीययोर्भुजलतयोविमला गुना मलमा पितृपुरियाईपुष्पाञ्जलिविधानायेव दधाना, कम्बुकान्तिकण्ठभूषणमाणि५ क्याखण्डालोकं बालातपमित्र कुचचक्रवाकमिथुनाविश्लेषाय प्रकाशयन्ती, कालाजनपुजनीलाल. कबन्धबन्धुरापरभागमपरान्तनिबिडनिविष्टतमःपटलमिवोडुपतिबिम्बं बिम्बारुणोष्टसंपुटशुक्तिगर्भनिर्भासुरदशनमौक्तिकापोडं ललाटेन्दुनियंदमृतधारायमाणनासावंशं विमलांशुजाललधित पोल. यन्ती दधतो, रोमावलीति-रोमावल्यंच तमालवनराजी तापिच्छकक्षपतिस्तस्यां संवर्धमानो योऽमृतसलिलकूपः पीयूषपानीयप्रहिस्तस्यैव विभ्रमः शोभा यस्य तद नामिमण्डलं तुन्दिचक्रवालं बिभ्रता दधता, कमायति—कमनीया मनोहरा, या कायकरुपवल्लरी शरीरकल्पलता तस्याः स्थूलस्तवकाविय विशाल. गुच्छाविव सम्पद् ययोस्ता शक्तियहारधरी मुक्ताफलहारधारिणी पयोधरी वक्षोजी दधी विनती, विला. सेति-बिलास एव समोरः पवनस्तेन समुस्थापिता या लावण्यतरङ्गिीतररंखा सौन्दर्यस्रवन्तीभङ्गरेखास्तद्वद् रमणीययोः कमनीययोः भुजलतयोर्बाहुवल्लयोः विमला निर्मला याङ्गुली नखाना करशाखानखराणां मयूखमाला किरणसन्ततिस्ताम् पितुर्जनकस्य पुरस्क्रियाहा॑णि प्राभृतयोग्यानि यानि पुष्पाणि तेषामञ्जलि१५ विधानायव हस्तसंपुटकरणायव दधाना बिभ्रती, कम्बुकान्तीति-कम्बुकान्तिः शङ्गसुन्दरो यः कपटस्तस्य यानि भूषणमाणिक्यानि आमरणरत्नानि तपामखण्डालोकोऽविरक प्रकाशस्तं कुचावेव स्तनावेव चक्रवाकमिथुनं स्थाङ्गयुगलं तस्याविश्लेषाय भविप्रयोगायेव बालातपं प्रत्यूषधर्म प्रकाशयन्ती प्रकटयन्ती, कालाअनेति-कालाअनपुजेनेव कृप्पणाजिनसमूहनेव नीलालकबन्धेन घनामचूर्णकुन्तलवन्धेन बन्धुरो मनोहरोड परमागो यस्य तद् अतएव अपरान्ते पृष्टभागे निबिडं सान्द्रं यथा स्यात्तथा निविष्टं स्थितं तमःपटलं तिमिर२० समूहो यस्य तथाभूतम उडुपतिविम्वमिव चन्द्रमण्डलमिव, बिम्बमिव रुचकमिवारुणं रतं यदोष्ठसंपुटं दशनच्छदयुगलं तदेव सुतिस्तस्या गर्ने मध्ये निर्मासुरो देदीप्यमानो दशनमौक्तिकानां रदनमुक्ताफलानामापीडः समूहो यस्मिन् तत्, ललाटेन्दोनिटिलचन्द्रमसो नियंन्ती निर्गच्छन्ती यामृतधारा तद्वदाचरन् नासा हाथसे पकड़े थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो कृशताके कारण पतनोन्मुख कमरको ही पकड़े श्री । रोमावलीरूपी तमाल वनकी पंक्तिके मध्य बढ़ते हुए अमृत जलके कुएँ के समान २५ सुशोभित नाभिमण्डलको धारण कर रही थी। सुन्दर शरीररूपी कल्पलताके स्थूल गुच्छोंके समान सुशोभित एवं मोतियों के हारसे युक्त स्तनोंको धारण कर रही थी। विलासरूपी वायुसे उठी सौन्दर्यरूपी नदीकी लहरों के समान मनोहर भुजलताओंमें वह निर्मल अंगुलियोंके नखोंकी किरणावलीको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो पिताको भेंट देने के योग्य पुष्पाञ्जलि ही तैयार कर रही हो। शंख सदृश कण्ठ में पहने हुए आभूपोंके मणियों ३० के अखण्ड प्रकाशको प्रकाशित कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो स्तनरूपी चक्रवा-चक का जोड़ा बिछुड़ न जाय इस भावनासे प्रातःकालका घाम ही प्रकट कर रही थी। बह उस मुखको धारण कर रही थी जो काले अंजनके पुंजके समान नीले-नीले अलकोंके बन्धन। . से नतीन्नत था और इसीलिए जो उपरितन भागमें स्थित सघन अन्धकारके समूह से युक्त चन्द्र. बिम्बके समान जान पड़ता था। जो बिम्बफलके समान लाल ओठोंके पुदरूपी सीपके भीतर ३५ देदीप्यमान दाँतरूपी मोतियों के समूहसे युक्त था। जिसका नासावंश, ललाटरूपी चन्द्रमासे १. क.० ख० ग० गृल्लुन्तीम् । २. 20 शौक्तिकेयहारधरौ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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