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________________ -वृत्तान्तः तृतीयो कम्मः रिधातुधूलिभिरिव रजितमलपतकरसतानं तनुतररेखामयशुभलाञ्छनाञ्चितमतिसुकुमारभुदरं दधद्भयां पादपल्लवाभ्यां पल्लवयन्तो भुवम्, विषमबाणतूणीरनिर्माणमातृकानुकाराभ्यामुद्यन्नूपुरविमलमुक्ताफलकरः स्निग्धबन्धुमनोभिरिव गमन प्रतिबन्धाय गृह्यमाणाभ्यां क्रमवृत्तस्निग्धानतिप्राशुभ्यां जवाभ्यां भासमाना, न्यक्कृतराजरम्भाकाण्डाभ्यामूरुस्तम्भाभ्यां घनजघननगराभोगभारमुद्वहन्ती, विलसदमलफेनपटलवलो महता बोलेगा प्रसारामु ने राजतगिरिकिरण- ५ जातेनेव कुतपरिष्कारा,तारुण्यसिन्धुपुलिनयोर्जधनयोः सारसविरावाञ्चितां काञ्चोमुदञ्चता करेण शिखरी गगन चरादिस्तस्य धानुभूलिमिगरिकरणुभी रजितमिव लोहितमिव अलक्तकरसन यावकरसन तानं रकवर्णम् , तनुतररेखामयानि कृशतररंखारूपाणि यानि शुभलाञ्छनानि शुभचिह्नानि तैरचिनं शोभितम्, अतिसुकुमारं मृदुलतरम उदरं मध्यं दद्धयां पादपल्लवाभ्यां चरणकिसलयाभ्यां भुवं प्रथिवी पल्लवयन्तो किसलयन्ती रक्तवर्णीकुर्वन्तीत्यर्थः, विषमवाणेति-विषमवाणो मदनस्तस्य तूणीरस्यपुधे. १० निर्माण रमनायां मातृकानुकाराभ्यां मातृकातुल्याभ्याम् उद्यन्त उत्पतन्नो ये नपुरविमलमुक्ताफलानां मनोरकामलमौक्तिकानां करा: किरणास्त: स्निग्धानि च तानि बन्धुमनांसि सनाभिस्वान्तानि ते: गमनप्रतिबन्धाय गमननिषेधाय गृह्यमाणाम्यामिव स्वीक्रियमाणाभ्यामिव क्रमवृत्ते कमवर्तुले स्निग्धे मरणे अनतिप्रांशू च नातिदीर्घ च ताभ्यां जनाभ्यां प्रसृताभ्यां भासमाना शोममाना, न्यकृतति-न्य स्कृतस्तिरस्कृती राजरम्माकाण्डो मोचातरुप्रकाण्डो याभ्यां ताभ्याम् अरुस्तम्माभ्यां सक्थिदण्डाम्याम , धनजघनमेव १५ स्यूलनितम्बमव नगरं तस्यामोगमारं विस्तारमारम उद्वहन्ती दधती, विलसदिति-विल सच्छोभमान यदमक फेनपटनं निर्मलडिण्डीरसमूहस्तद्वद्वलक्षेण प्रवलेन महता विस्तृतेन क्षौमेण चीनांशुकेन प्रयाणे प्रस्थाने यदनुसरणं यदनुगमनं तस्य कृतं समायाता ये राजगिरिकिरणाः खगगिरिरश्मयस्तेषां जातेन समूहन कृतपरिष्कारा विहितालिङ्गना, तारुण्यति-तारुण्यमेव सिन्धुनदी तस्याः पुलिनयोस्तटयोः जघनयोनितम्बयोः सारसानां गोनर्दानां विराव इव विरावः शब्दस्तेनाञ्चितां शोभितां तनुतया कृशस्वेन पतना-२० भिमुखं पतनतत्परं मध्यमवलनम् गृह्णन्तीमिव काची रशनाम् उद्धता समुत्थापयता करेण पाणिना धार विजयापर्वतकी धातुओंकी धूलिसे रंगे हुए के समान, अलक्तक रसके समान ताम्रवर्ण, अत्यन्त सूक्ष्म रेखाकार शुभ चिह्नोंसे सुशोभित, एवं अत्यन्त सुकुमार तलुएको धारण करनेबालं पादपल्लवोंसे पृथिवीको पल्लवित कर रही थी । कामदेव के तरकश बनाने में जो माताका अनुकरण कर रही थी, न पुरोंमें लगे निर्मल मोतियोंकी उठती हुई किरणोंस जो ऐसी जान २५ पड़ती थीं मानो स्नेही बन्धुजनोंके मनोंने गमनमें रुकावट डालने के लिए ही उन्हें पकड़ रखा हो तथा जो क्रम-क्रमसे गोल, चिकनी और कुछ थोड़ी लम्बी थी ऐसी जंघाओं-पिंडरियोंसें वह सुशोभित हो रही थी। राजरम्भा-राजकेलक स्वम्भीका तिरस्कार करनेवाली ऊरओंसे यह स्थूल नितम्बरूपी नगर के विस्तृत मैदानको धारण कर रही थी। वह अत्यन्त सुशोभित फेन समूहके समान सफेद बहुत भारी रेशमी वस्त्रसे अलंकृत थी और उससे ऐसी जान पड़ती ३० थी मानो प्रयाणके समय पीछे-पीछे चलनेके लिए आये हुए विजयार्ध पर्वत की किरगोंके समूह से ही सुशोभित हो । यौवनरूपी सागरफे तटोंको समानता रखनेवाले दोनों नितम्बोपर सारस पक्षियों-जैसी ध्वनिसे सुशोभित करधनीको वह ऊपरकी और उठते हुए २. का ख. ग० रणभिरिव ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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