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________________ ૧૨ गद्यचिन्तामणिः [१०५ गन्धर्वदत्तायाः - भयविदारितेन तरुणतरणिकिरणनिकरेणेव कुण्ठितकुसुम्भकुसुमसोकुमार्यस्य दशनच्छदमणेररुणेनांशुजालेन रागजलेनेव सिञ्चन्ती समन्तादासीनमवनिपाललोकम्, आगामिदयितहृदयगृहप्रवेशमङ्गल. विकीर्णसुमनःसौभाग्यहरेण हारेण पुलकितस्तनकलशयुगला, नवदलितकदलोगर्भकोमलं वासो बसाना, वासुकिसमाविष्टमन्दरमथितमहोदधिसमुद्गतां संसक्तडिण्डीरपाण्डुरितनितम्बां •निन्दन्ती ५ श्रियम्, काभिश्च न करकलितकनकाञ्चीभिः, काभिश्चन कमलनिलीनकलहंसपरिभावुकपटपल्लव परिष्कृतपाणिपुटाभिः, काभिश्चन काचनमयमपि पञ्जरं काचकल्पितमिव निजकान्तिकल्लोलरा विदारितन प्रकटितम, तरुणतरगिमध्याह्नसूर्यस्तस्य किरणनि करेणव, रश्मिसमूहनेव कुष्टितं विरुद्धं कुसुम्भकुसुमस्य रक्तवर्ण पुष्पविशेषस्य मौकुमार्य मृदुत्वं येन तस्य दशनच्छदमणः ओष्टभ्रंटस्य अरुगन रकेन अंशुजालन किरणकलापन राग पुत्र जलं तेन प्रीतिपानीय नेत्र समन्तात्परित शासन विद्यमानम् अवनिपाललोक नृपतिसमूहम् सिञ्चन्ती, आगामीति-आगामी भविस्यन् दयितहृदयप्रवेशः स्वामिस्वान्तसदनप्रवेश एवं मङ्गलं तस्मिन् विकीर्णानि विस्तारितानि यानि सुमनांसि पुष्पाणि तेषां सौभाग्यस्य हरस्तन हारेण मुकासरेण पुलकितं रोमान्चितं स्तनकलशयुगलं यस्याः सा, नवेति- नवदलितः प्रत्यप्रखपिरतो यः कदली. गों मोचातरुमध्यभागस्तद्वत् कोमलं मदु बासो वस्त्रं वस्ते इति बसाना आच्छादयन्ती 'वस आच्छादने' इत्यतः शानच, अत एवं वासुकीति-वामकिना शंयोग समाविशी पदरोगरोर मथितो विलोडिती १५ यो महोदधिर्महासागरस्तस्मान् समुद्गतां नि.सतां संसक्तेन विरंग पाण्डरितो धवलितो नितम्बो यस्यास्तां धियं लक्ष्मी निन्दन्ती तिरस्कुर्वन्ती, काभिश्वन करें कलिता हस्ते धृता कनककाजी स्वर्णमेखला याभिस्ताभिः, काभिश्चन कमलेषु सरोज्पु निलीनाः स्थिता ये कलहंसाः कादम्बास्तषां परिभाचुकन तिर. स्कर्या पटपल्लवेन वस्त्राञ्चलेन परिष्कृताः सहिताः पाणिपुरा हस्तपुटा यासा ताभिः, काभिश्वन काञ्चनमयमपि स्वर्णनितिमति पञ्जरं शलाकागृहं निजकान्तिकल्लाल: निजाभारः काचकल्पितमिव काचरचितमिव -.-..-... - -.- . . . - २० विदारित तरुण सूर्य के किरणसमूह के समान, कुसुमके फूलको सुकुमारताको नष्ट करनेवाले , ओठरूपी मणिको लाल-लाल किरणोंके समूहसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानों सब ओर बैठे हुए राजाओं के समूहको रागम्पो जलसे सींच ही रही हो। आगे होनेवाले पति के हृदयरूपी गृह में प्रवेश करते समय मंगलाचारके रूपमें विखरे हुए फूलोंके सौभाग्यको हरनेवाले हारसे जिसके स्तनकलशों का युगल पुलकित हो रहा था। जो नवीन खण्डित केलके भीतरीभागके २५ समान कोमल वस्त्रको पहने हुई थी और उससे एसी जान पड़ती थी मानो वासुकि नागसे लिपटे मन्दराचलसे मश्रित महासागरसे निकली एवं लगे हुए फेनसे सफेद नितम्बोंको धारण करनेवाली लक्ष्मीको निन्दा ही कर रही हो । जो सब ओर लटकनेवाली मोनियोंकी मालाओंसे सुशोभित, सूर्यको किरणों के उद्गमको अपहत करने वाले मणिसमूह के प्रकाशसे मनुष्योंकि नेत्रांको आकुलित करनेवाल, नाना प्रकार के फलॉस च्यान, एवं पुष्पक विमानके जीतने में ३. चतुर पालकोमें सवार थी और अत्यन्त बुद्धिमती गू इसे गूद भावों को प्रकट करनेवाली समीपमें विद्यमान आत्मतुल्य सखियाँ सैकड़ों प्रिय वचनोंसे जिसे प्रसन्न कर रही थीं। गन्धर्वदत्ताकी पालकीका समीपवर्ती प्रदेश अनेक परिचारक स्त्रियोंसे व्याप्त था। उन परिचारकस्त्रियों में कितनी ही स्त्रियाँ हाथों में स्वर्ण की मेखलाएँ धारण कर रही थीं। कितनी ही स्त्रियोंक हस्तपुट कमलोंपर वैटे कलहंस पक्षियों को तिरस्कृन करनेवाले वस्त्रके पल्लवों-रूमालोंसे ३५ सहित थे। कितनी ही स्त्रियाँ स्वर्ण के पिंजरेको अपनी कान्निके समूहसे काचसे निर्मिनके १. म० क दलगर्भ। २. म० कट के लितकाला वाभिः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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