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________________ - वृत्तान्तः दशमो लम्मः पुरुषिका । युक्तं च त्वयापि वक्तुमेवम्' इत्युक्त्वा सत्वरोपसपितकरिणः करिणमवप्लुत्योदस्तकौक्षयकं क्षेपोय: स्वयं हन्तुमापतन्तं तमन्तराले नितान्तनिशितशक्तिशकलितशरोयष्टिं काष्ठाङ्गारम् ! उदस्तम्भयच्च संग्रामसंरम्भस्तम्भनं विजयानन्दनो विजयध्वजम् । अप्रनन्दयच्च सानन्दमभ्येत्य सफललोचनत्वमात्मन्यात्मजायां वीरपत्नीव्यपदेशं वोरसूव्यपदेशमध्यवरजायामाकलयन्तम्, चन्दनशिशिरेण हृदयनिर्वाणविवरण चतुरेण विमलस्थलेन निष्पतता वापपूरेणा-५ भिषिञ्चन्तमिवालिङ्गन्तं गोविन्दमहाराजम्, आजिदर्शितनैकापदानसंभवदानृण्यानवरजसमेतान् सदपंता पल्या व्यर्था स्यात् त्वयापि एवं वक्तुं निगदितुं युकं च स्यादिति शेषः' इत्युक्त्वा सत्वरं शवमुपसम्तिश्चासौ करी च सत्वरोपसपितकरी तस्मात् शीघ्रीपगमितगजात करिणं तदीयगजम् भालुल्य उत्पत्य उदस्त कोक्षेयकं समुत्यापित खडगं क्षेत्रीयः शीघ्र स्वयं हन्तुं मारथितुम भापतन्तमायान्तं अन्तराले मध्ये नितान्तनिशिराशक्त्या अन्यन्ततीक्ष्णशक्त्यायुधेन शकलिता खपिता शरीरयष्टिदेहयष्टियस्य तथाभूतं १० तं कारगारं गयन्तरम् अनैषीत् प्रापयामास । उदस्तम्मय उन्नमयामास च विजयानन्दनो जीबंधरः संग्रामसेरम्भस्तम्मनं समरोद्योगनिवारकं विजयशंसिनं विजयसूचक विजयनजं विजयवैजयन्तीम् । अभ्यनन्दयच्चेति-सानन्दं सहर्षम् अभ्येत्य समागत्य, आत्मनि स्वस्मिन् सफललोचनत्वं सार्थकनयनखम् , आत्मजायां पुश्यां वीरपत्नीनि व्यपदेशस्तं वीरभाव्यिवहारम् , अवर जायां लधुभगिन्यां विजयामहादेव्यां वीरं सूत इति वीरसूतथा व्यपदेशस्तं वीरजननीयवहारम् आकल यन्तं धनवन्तम् चन्दन इब १५ शिशिरः शीत्तलस्तन मलय जशीतलेन हृदयनिर्वाणस्य चेत.संतोषस्य विवरणे प्रकटने चतुरस्तेन, विमलश्च सौ स्थूलश्चेति विमलस्थूलस्तेन समुज्ज्वलपीवरेण निप्पतता निगलता बाष्पपरेण नयन जलप्रवाहण अमिपिअन्तमित्र स्नपयन्तमिव आलिङ्गन्तं समाश्लिप्यन्तं गोविन्दमहारानम् आजी युद्धे. दर्शितं प्रकटितं यत् नैकापदानं नैक साहसं तेन संभवद् आनृण्यम् ऋणमुक्तत्वं यैस्तथाभूतान , अवर जस मेतान् लघुसनाभि द्वारा वध्य है अथवा मैं इसके द्वारा वध्य हूँ ऐसा बुद्धिमान मनुष्य नहीं जानते । फिर २० किसलिए विवेकरहित हो मेरा अधिक तिरस्कार कर रहे हो ? नीच राज्ञा काष्ठांगारके मायापूर्ण उक्त वचनोंको श्रवण कर प्रतिभासे उसके अभिप्रायको प्रकाशित करनेवाले बुद्धिमान् जीवन्धरस्वामीने उत्तर दिया कि भयभीत क्यों हो रहे हो ? तदनन्तर अत्यन्त क्रोधाग्निको धारण करनेवाले वचन सुननेसे 'अरे नीचवणिक पुत्र ! वचन मात्रसे क्या ? विजय तो भाग्यके वासे होती है। तेरी शक्तिका समागम होनेपर यदि मेरे नेत्र भयभीत हो जावें तो २५ मेरा यह पुरुषत्व का अहंकार व्यर्थ हो सकता है और तेरा ऐसा कहना मा टीक हो सकता है, यह कह शीघ्रनासे पास में ले जाये हुए हार्थीसे हाथीपर उछलकर ज्यों ही काष्ठांगार तलवार तानकर शीघ्र ही मारने के लिए झपटा कि जीवन्धरस्वामीने बीच में ही अत्यन्त तीक्ष्ण शक्ति नामक शस्त्रसे उसके शरीरके खण्ड-खण्ड कर उसे परलोक भेज दिया और युद्धकी तैयारीको रोकनेवालो एवं विजयको सूचित करनेवाली विजयरताका फहरा दी। तदनन्तर जो अपने आपमें सफल लोचनतःको, पुत्रीमें वीरपत्नी के व्यपदेशको और छोटी । बहिन-विजया रानोमें वीरसू व्यपदेशको धारण कर रहे थे। जो चन्दनके समान शीतल, हृदयके सन्तोषको प्रकट करने में चतुर, निर्मल और स्थूल गिरते हुए अश्रुप्रवाहसे मानो अभिषेक ही कर रहे थे ऐसे आलिंगन करते हुए गोविन्द महाराज का, युद्धमें दिखलाये हुए अनेक प्रकारके पराक्रमसे जिनकी अनृणता सूचित हो रही थी ऐसे छोटे भाई सहित मित्रांका, ३५ १. क० ख० हन्तुमात्मनि पतम्तम् ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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