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गद्यचिन्तामणि: [ ४० गन्धोरकटेन पुत्रजन्ममहोत्सवायोजनम् -
वस्थाप्य ' सुतावस्थामवगम्यागमिष्यामि इत्यभिधाय तिरोधात् ।
$ ४०. गन्धोत्कटश्च हर्षोत्कटेन मनसा सम समयप्रहत मेरी मृदङ्गमर्दलका हलकांस्यतालशङ्खघोषण मुषितेत रशब्दसमुन्मेपम् तोषपरवशवंश्य जनजन्यमान संमर्द' विकीर्यमाणपिष्टातकपांसुधूसरीभवदहस्करालोकम्, उल्लोक वितीर्यमाणवित्तमुदितार्थिवर्गविधीयमानाशीर्वादम्, वचनावचन५ विवेकविधुरपरिजन प्रवर्त्य मानलोलालाप कलकल संकुलम्, समन्तादावर्ज्यमान तैलधारा पिच्छिलधरातलस्खलितलोकम्, प्रमोदमयमिव प्रदानमयमिव प्रसूनमयमिव सत्कारमयमिव संगीतमयमिव संमर्दमयमिव लास्यमयमित्र लावण्यमयमिव लक्ष्मीमयमिव लक्ष्यमाणमात्मजजन्म महोत्सव मन्वभूत् । अवासीत् निवासं चकार । साधितं पूर्ण समीहितं यस्यास्तथाभूता सा देवता च तां विजयां तत्रैव तपोवने sushantतःपातिनि तापसाश्रमे, अवस्थाप्य 'सुतावस्थां पुत्रदशाम् अवगम्य ज्ञात्वा आगमिष्यामि' १० इत्यभिधाय कथयित्वा तिरोधात् अन्तर्हिता बभूव ।
६ ४०. गन्धोत्कटश्चेति-- गन्धोत्कटश्च तन्नामवैश्यपतिश्च हर्षोत्कटेन प्रमोदनिर्भरेण मनसा समसमयं युगपत् प्रहस्तादिता भेर्यादयो वादिविशेषास्तेषां घोषणेन शब्देन मुषितोऽपहत इतर शब्दानामन्यशब्दानां समुन्मेषो विकासो यस्मिन् तम्, तोषेण हर्षेण परवशाः परायत्ता ये वंश्यजनाः, कुटुम्बिनास्तैर्जन्यमानः क्रियमाणो यः संमर्दो जनसमूहस्तस्मिन् विकीर्यमाणेन प्रक्षिप्यमाणेन पिष्टातकपांसुना पिष्टा१५ तकनामचूर्णेन धूसरीभवन्मलिनीभवन् अहस्करालोकः सूर्यप्रकाशो यस्मिन् तमू, उल्लोकं प्रचुरतरं यथा स्वासथा वित्तीर्यमाणेन दीयमानेन विसेन धनेन मुदिताः प्रसन्ना येऽथिंबर्गा याचकसमूहास्तैर्विधीयमान आशीर्वादो यस्मिन् तम् वनावधनयोर्वकन्यावध्यशब्दयोविवेकेन बोधेन विधुरा रहिता थे परिजनास्तैः प्रवत्यमानो थी लीलालाक क्रीडाभाषणं तस्य कलकलेन कोलाहलेन संकुलस्तम्, समन्तात्परित भावयमाना या तैलधारा तथा पिच्छिले पहिले घरातले स्खलिता लोका यस्मिन् तम्, प्रमोदमयमित्रानन्दमयमिव २० प्रदानमयमिव प्रकृष्टदानमयभित्र प्रसून मंयमित्र पुष्पमयमिव, संगीतमय मित्र मधुरगीतमयभिव, समईमयमिव जनसमूहमयमिव, लास्यमयभित्र नृत्यमयमित्र, लावण्यमयमिव सौन्दर्यमयमिव, लक्ष्मीमयभिव श्रीमयमित्र लक्ष्यमाणम् आत्मजस्य जन्ममहोत्सवस्तम् अन्वभूत् । उपसर्गवशालवतेः सकर्मकत्वम् ।
हरी मुट्ठियोंसे सदा प्रसन्न करती हुई रहती थी। इस प्रकार मनोरथको सिद्ध करनेवाली देवी, विजया रानीको उस तोवनमें ठहरा कर 'मैं पुत्रकी अवस्था जानकर आऊँगी' यह कह २५ अन्तर्हित हो गयी ।
४०. इधर वैश्यपति गन्धोत्कटने से परिपूर्ण हृदयसे पुत्र जन्मके उस महोत्सबका अनुभव किया जिसमें एक साथ ताड़ित भेरी, मृदङ्ग, मर्दल, काहल, झाँझ, और शङ्खोंके शब्द से अन्य शब्दों का उन्मेष अपहृत हो गया था, आनन्दसे विवश कुटुम्बी जनके द्वारा की हुई भीड़पर फेंकी जानेवाली गुलालको एलिसे जिसमें सूर्यका प्रकाश धूसर हो रहा था, ३० अत्यधिक मात्रा में दिये जानेवाले धनसे प्रसन्न याचकों के समूह जिसमें आशीर्वाद दे रहे थे,
' कहना चाहिए या नहीं कहना चाहिए इसके विवेकसे रहित परिजनोंके द्वारा किये जानेवाले विनोदपूर्ण वार्तालापकी कल-कलसे जो व्याप्त था, सब ओर छोड़ी जानेवाली तेलकी धारासे पङ्किल पृथिवीतलपर जहाँ लोग फिसल- फिसलकर गिर रहे थे, तथा जो हर्षमय के समान, दानमय के समान, पुष्पमयके समान, सत्कारमय के समान, संगीतमय के ३५ समान, भीड़ से तन्मय के समान, नृत्यमय के समान, सौन्दर्यमयके समान, और लक्ष्मीमयके समान दिखाई देता था ।
१. क० ख० ग० वंश्यजनसमान संमर्दम् ।