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________________ .- प्राप्तिः ] प्रथमो लम्भः नन्दितसनाभिगृहगमनामविदितकर्तव्यां विश्वसत्त्वविसम्भवितरणशौण्डदण्डकारण्यान्तःपातिनं पत्रलपरिसरपादपनिर्वासितपथिकपरिश्रम तापसाश्रममनैषोत् । सा च तत्र संतापकृशानुकृशतरा कृशोदरी करेणुरिव कलभेन धेनुरिव दम्येन श्रद्धेव धर्मेण श्रीरिव प्रश्रयेण प्रज्ञेव विवेकेन तनुजेन विप्रयुक्ता विगतशोभा सती विमुक्तभूषणा तापसवेषधारिणी करुणाभिरिव मूर्तिमतीभिर्मुनिपत्नीभिरुपलाल्यमाना मनसि जिनचरणसरोजमात्मजवृद्धि च ध्यायन्ती समुचितव्रतशील- ५ परित्राणपरायणा पाणितलविलूनाभिर्म रकतहरिताभिर्दूर्वा मुष्टिभिर्मोदयन्तो नन्दनाभिवर्धनमनोरथविनोदनाय मुनिहोमधेनुवत्सानवात्सीत् । सा च साधितसमोहिता देवता तत्रैव तपोबने ताम शोक एवं दहनो बहिस्तेन दहामानं हृदयं यस्यास्ताम्, अनमिमतमनभिप्रेतं जीवितं यस्यास्तां विजयां निजानभावात्स्वमहिम्ना आश्वास्य सान्त्वयिस्ता अनमिनन्दितमननमोदितं सनाभिगा सहोदरगृहगमनं यया तथाभूतां अविदितकर्तग्यामज्ञातस्वकर्तव्यां हां विजयां विश्वसत्वेभ्यो निखिल- १० प्राणिभ्यो विस्रम्भस्य विश्वासस्य वितरणे प्रदाने शौण्डं समर्थ यद् दण्डकारण्य दण्डकवनं तदन्तःपातिनं तन्मध्यस्थितं पन्नलैः पत्रयुक्नः परिसरपादपैस्तटतरुभिनिर्वासितो दूरीकृतः पथिकपरिश्रमो यस्मिन् तं तापसाश्रमं तपोवनम अनैषी नयति स्म 'अकथितं च' इति विकर्मकात्रम् । सा चेति-सत्र तापसाश्रमे संताप एव कृशानुस्तेन दुःखाग्निना कृशतरा अतिक्षीणा सा च कृशोदरी विजया कलभेन शावकेन : विप्रयुका करणुरिष हस्तिनीय, दम्येन तर्णकेन विप्रयुक्ता धेनुरिव गौरिख, धर्मेण चारित्रेण १५ विप्रयुक्ता अद्वेष रुचिरिव, प्रश्रयेण विनयेन विप्रयुक्ता श्रीरिव लक्ष्मीरिव, विवेकेन सदसज्ज्ञानेन विप्रयुक्ता प्रज्ञेव बुद्धिरिव तनुजेन पुत्रेण विप्रयुक्ता रहिता विगतशोभा नष्टश्रीः सती विमुक्तानि भूषणानि यया सा स्यनालङ्कारा तापसवेषधारिणी तपस्विवेषधारिका, मूर्तिमीभिः शरीरधारिणीभिः करुणाभिरिवानुकम्पाभिरित्र मुनिपानीभिस्तापसीमिः उपलाल्यमाना प्रसाधमाना मनसि चेतसि जिनचरणसरोजमहत्पादारविन्दम् भात्मजवृद्धिं च सुतवृद्धिं च ध्यायन्ती चिन्तयन्ती समुचितयो २० व्रतशीलयोः परित्राणे रक्षणे परायणा तःपरा, पाणितलविलूनाभिः स्वहस्ततलच्छिमाभिः मरकतहरितामिमरकतमणिसदृशहरितवर्णाभिः पूर्वामुष्टिमिः शतपर्वमुष्टिभिः, नन्दनस्य दारकस्याभिवर्धनमनोरथाः पालनामिप्रायास्तेषां विनोदनाय दूरीकरणाय मुनिहोमधेनुवत्सान् तापसहोमगोतर्णकान् मोदयन्ती प्रसादयन्ती, . - - - - रहना इष्ट नहीं था ऐसी विजया रानीको अपने प्रभावसे आश्वासन देकर शान्त किया। . तदनन्तर जिसने अपने भाई के घर जाना स्वीकृत नहीं किया था, और अपने कर्तव्यका भी २५ जिसे बोध नहीं था ऐसी विजया रानीको वह देवी, समस्त जीवोंको विश्वास देने में समर्थ दण्डक बनके अन्तर्गत, हरे-भरे तटवर्ती वृक्षोंसे पक्षियोंका भय दूर करनेवाले तापसाक आश्रममें ले गयी। सन्तापसे जिसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, ऐसी कृशोदरी बिजया रानी उस आश्रम में बच्चेसे रहित हस्तिनीके समान, बछड़ेसे रहित गायके समान, और विवेकसे रहित प्रज्ञाके समान पुत्रके बिना सुशोभित नहीं हो रही थी। उसने सब आभषण उतारकर ३० दर कर दिय तथा तपस्विनीका वेष धारण कर लिया। जो मतिमती दयाके समान जान पड़ती थीं ऐसी मुनिपत्नियाँ बड़े प्रेमसे उसका लालन करती थीं। वह सदा हृदयमें जिनेन्द्र भगवान्के चरण कमल और पुत्रकी वृद्धिका ध्यान करती रहती थी। अपने योग्य व्रत और शीलकी रक्षामें सदा तत्पर रहती थी तथा पुत्रकी वृद्धिसम्बन्धी मनोरथको बहलाने के लिए 31 ३५ मुनियोंकी गायोंके बछड़ों को अपने हस्ततलसे काटी हुई मरकत मणिके समान दृब की हरी
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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