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________________ प्रस्तावना सम्पादन सामग्री गद्यचिन्तामणिका सम्पादन नीचे लिखी प्रतियों के आधारपर हुआ है १. 'क' यह प्रति श्रीमान् पं० के० भुजबलो शास्त्री मूडबिद्रीके सत्प्रयलसे श्रवणवेलगोलाके सरस्वतीभवनसे प्राप्त हुई थी। यह कन्नड लिपिमें ताड़पत्रोंपर लिखी हुई है। इसमें १४४ १४ इंचके ९७ पत्र है । प्रतिपत्रमें ८ पंक्तियों और प्रति पंक्तिमें ६६ के लगभग अक्षर हैं । दशा अच्छी है. अभर सुवाच्य है, बीच-बीच में टिप्पण भी दिये हुए है । अन्तके २ श्लोक इस प्रतिमें नहीं है। अन्तिम लेख इस प्रकार है 'परिधाविसम्बत्सरे माघमासे प्रथमपक्षे प्रतिपत्तिथी रविवासरे बहुगुलापुरे लिखितम् ।' २. 'ख'-यह प्रति मो श्री पं० के० भुजबलो शास्त्री मूडबिद्री के सत्प्रयत्नसे प्राच्यविद्यामन्दिर मैसूरसे प्राप्त हुई थी। यह कन्नड़ लिपिमें कागजपर लिखी हुई है। इसमें १२४७१ इंचके १३१ पृष्ठ है। प्रति पृष्ठपर ३३ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्तिमें २७ के लगभग अक्षर है। रजिस्टर के रूपमें पक्की जिल्द है १८९९ दिसम्बरको नरसिंह शास्त्रीके द्वारा लिखी गयो है । ३. 'ग'-यह प्रति श्री पं० के० भुजबलो शास्त्रो मूडबिद्रीके सत्प्रयत्नसे प्राच्यविद्यामन्दिर मैसूरसे प्राप्त हुई थी । यह कागजपर आन्ध्र लिपिमें लिखी हुई है। इसमें १२ ४७३ इंचके १३० पृष्ठ हैं। प्रत्येक पृष्ठमें २० पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिम २०-२१ अक्षर हैं । अन्तिम लेख इस प्रकार है___'जय सम्बत्सर आश्विन बहुल १४ तिरुवल्लर वीर राधाचार्येण लिखितम् ।' दशा अच्छी है, रजिष्टरनुमा पक्की जिल्द है। ४. 'घ'—यह प्रति भी उक्त शास्त्रीजीके सौजन्यसे वणवेलगोलाके सरस्वतीभवनसे प्राप्त हुई थी । यह कन्नड लिपिमें ताड़पत्रोंपर लिखी हुई है। इसमें १२४१३ इंचके २१४ पत्र है। दशा अत्यन्त जीर्ण है, अधिकांश स्याही निकल जानेसे लिपि अवाच्य हो गयी है अतः इसका पूरा उपयोग नहीं हो सका है । लेखन-कालका पता नहीं चला । अन्तमें इस प्रकार लेख है... 'बासुपूज्यायनमः, कनकभद्राय नमः ।' ५. 'म'—यह प्रति टी० एम० कुप्पूस्वामो-द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित मुद्रित मूल प्रति है। इसका सम्पादन कुप्पूस्वामोने ७ प्राचीन प्रतियोंके आधारपर किया था अतः शुद्ध है। इसके दो संस्करण छप चुके हैं, पहले संस्करणको अपेक्षा दूसरे संस्करणमें प्रेसको असावधानीसे कुछ पाठ छूट गये हैं। यथा ३२ पृष्ठमें भुवन शब्दके बाद 'विवरव्यापिना--' आदि ७-८ पंक्तियाँ छूट गयी है। दुःखकी बात है कि हमें गद्यचिन्तामणिकी नागरी लिपिमें लिखी हुई एक भी प्रति नहीं मिल सकी। आन्ध्र और कन्नड लिपिकी उक्त चार प्रतियोंसे पाठभेदोंका संकलन श्री पं० देवरभट्टजी, वाराणसीने किया है । श्रीमान् पं० अमृतलालजी जैन दर्शनाचार्य, वाराणसीने भी इसमें पूर्ण सहयोग दिया है अतः मैं इनका अत्यन्त आभारी हूँ। मैं स्वयं आन्ध्र और कन्नड लिपिका ज्ञाता नहीं अतः उक्त प्रतियोंसे स्वयमेव लाभ लेने में असमर्थ था।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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