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________________ गधचिन्तामणिः [ ३ श्रीदत्तवैश्यस पार्यते । न चेदमुदयारम्भसंभवदुदंशोः शिशिरांशोरच्छांशुभिर्विच्छुरितहरिन्मुखम् । न हि कौबे ककुभि कुमुदबन्धोरुदयानुबन्धः । न च विकचविचकिलफुल्लोल्लसद्वनवल्लरोप्रतानसवित गगनम् । न हि तस्यैवमुच्चस्तलोपलम्मा संभवति । किमिदम् ।' इति चिन्तया किंचिदन्त मतिक्रामन्पुण्डरीकषण्डमिव पुजीभृतं शीतगभस्तिमालिगभस्तिप्रतानमिव स्त्यानमपास्तसमस्त तमःस्तोमं प्रशस्त विविधविद्यापारगपरमपुरुषपरिषत्पक्षीकृतमक्षयानन्ददानदक्षमतिशुक्लशुक्लध्या मिव बहिः पिण्डोभूतं पाण्डुरितवनराजि राजतगिरिमेक्षिष्ट, अभ्यमनायिष्ट' च परमश्रुतप्रतिपादि यथाश्रुतं तमुत्पश्यन्वैश्यपतिः, अप्राक्षोच्च प्रीतिविस्फारितेक्षणः सहचरं खचरम् 'खेचरगोचरे पार्यते न शक्यते । न चेदं दृश्यमानम् उदयारम्भे समवन्त उदंशव ऊर्ध्वरश्मयो यस्य तथाभूतस्य शिशिर शोश्चन्द्रमसः अच्छांशुभिरुज्ज्वलमरीचिभिः बिछुरितहरिन्मुखं व्याप्तदिग्मुखम् । हि यतः कौबेरककुरि उत्तरदिशि कुमुदबन्धोः शशिन उदयानुबन्ध उदयस्थितिः न भवति । न च विकचानि विकसितानि या चिचकिलफुल्लानि सैवलसन्तीना वनवल्लरीणां प्रतानेन समहेन सवितान सहितं गगनम् । हि यतस्तर एवमित्यम् उच्चस्तलोपलम्म उच्चतरस्थानप्राप्तिः संभवति । किमिदम् । इति चिन्तया विचारे किञ्चिन्मनाग अन्तरमन्तरालम् अतिक्रामन् उल्लङ्घयन् पुजीभूतं पुण्डरीकपण्डमिव श्वेतकमलसमूहमिय स्त्यानं प्रतिविम्बितं शीतगमस्तिमालिनः शशिनो गभस्तिप्रतान भिव किरणकलापमिव, अपास्तो दूरीकृत १५ समस्ततमःस्तोमोऽन्धकारसमूहो यस्मिन् स्तम्, प्रशस्तासु श्रेष्ठासु विविधविद्यासु नानाविद्यासु पारय निष्णाला ये परमपुरुषा उत्कृष्टपुरुषास्तेषां परिषरसम्हस्तेन पक्षीकृतं स्वीकृतम् , अक्षयानन्दस्य स्थायि हषस्य दाने दक्षं समर्थम् , बहि:पिण्डीभूतं राशीभूतम् अतिशुक्लध्यानमिव चतुर्थध्यानमिव, पाण्डु. रिताः शुक्लीभूता वनराजयो काननपरक्तयो यस्मिन् सं राजतगिरि विजयाधपर्वतम् , ऐक्षिष्ट, परमश्रुत. प्रतिपादितं जिनागमनिरूपितं तं राजतादि श्रुतमनतिक्रम्येति यथाश्रुतं यथाशास्त्रम् उत्पश्यन् उदवलोक२० यन् अभ्यमनायिष्ट च ज्ञातवांश्च । अवाक्षीच्च प्रीत्या विस्फारिते विस्तारित ईक्षणे नयने यस्य तथाभूतः । क्षीरसागर तो है नहीं क्योंकि वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते । उदय के प्रारम्भमें जिसकी उत्कृष्ट किरण फैल रही हैं ऐसे चन्द्रमाको उज्ज्वल किरणोंसे व्याप्त यह दिशाका अग्रभाग भी नहीं है क्योंकि उत्तर दिशामें चन्द्रमाका उदय नहीं होता। खिले हुए विवकिल के फूलोंसे सुशोभित वनकी लताओंके समूहसे व्याप्त आकाश भी नहीं है क्योंकि उसका इतनी ऊँचाईपर पाया २१ जाना सम्भव नहीं है । तो फिर क्या है ? इस प्रकारकी चिन्ता करता हुआ जब वह कुछ और आगे गया तब उसने उस विजयाध पर्वतको देखा जो इकट्ठे हुए सफेद कमलों के समूहके समान जान पड़ता था अथवा फैले हुए चन्द्रमाकी किरणों के समूह के समान दिखाई देता था। समस्त अन्धकारके समूहसे रहित था | प्रशंसनीय एवं नाना प्रकारको विद्याओंके पारगामी श्रेष्ठ पुरुपोंके समूहसे अंगीकृत था। अक्षय आनन्दके देने में समर्थ था। बाहर इकट्ठे हुए ३० अत्यन्त निर्मल शुलध्यान के समान था,और सफेद-सफेद वनकी पङ्क्तियोंसे युक्त था। परमा गममें जैसा उस पर्वतका वर्णन किया गया है और जैसा उसने सुन रखा था वैसा ही उसे देखकर उसने निश्चय कर लिया कि यह विजयाधेपर्वत ही है। तदनन्तर प्रीतिसे विकसित नेत्रों को धारण करनेवाले श्रीदत्तने अपने साथी विद्याधरसे पूछा कि विद्याधरोंके निवासभूत १. अभ्भमनायिष्ट-ज्ञातवान् इति टिप्पणी ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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