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________________ गचिन्तामणिः [ जीबंधरकुमारस्य - 'अलमत्यर्थमथितया । माम, यथाभिमतम्' इति स्वमतानुरूपमुदीरयामास । ६८७. स च तावता तुष्टो गोपप्रष्ठस्तद्वचनमाकर्ण्य सुखार्णवे निमज्जस्तर्णककुलचविताग्रदूर्वागुच्छशबलितोपशल्यं निःशल्यः प्रविश्य गृहं गृहिण्या अप्यनया वार्तयाप्रवर्तयश्रवणोत्सवं दुहितृकल्याणमहोत्सवे महान्तमकुरुत संरम्भम् । अथ प्रथमानवीर्यधनकुमारसंबन्धेन गोधनोपलम्भादपि शंभरसंभ्रमे!संख्यानां मुख्यस्य गुणैः प्रवृद्धे द्विगुणितोत्सुक्यजनविहितविवाहोत्सवकर्मणि पल्लवितरागवल्लवरामाकरपल्लवसंपकंपुनरुक्तरागरवतमृदुपलिप्तभित्तो रम्भास्तम्भगगनसूर्यः स च जीवंधरी नीश्चकुलललनामा अधमगोत्रोत्पन्नस्त्रियाः संपर्कस्तम् अविवेकिवर्गसुलभमसुधीजनसुलभम् आकलयन् विचारयन् 'अत्यर्थ प्रचुरम् अपितया याचनयाऽलं पर्याप्तम् । हे माम ! यथाभि मतम् अमिमतमनतिक्रम्येति यथाभिमतं यथा तवेष्टं तथैव मे स्वीकृत मिति यावत्' इति स्वमतानुरूपं १० स्वामिप्रायसदृशम् , उदीरयामास कथयामास । ६७. स चेति-तावसा तावन्माण तुष्टः स च गोपप्रष्ठो नन्दगोपः तब्दचनं जीवंधरवचनम् आकर्य श्रुत्था सुखार्णवे सुखसागरे निमजनू अन् तर्णककुलैवरससमूहश्चर्वितं मक्षितमनं येषां तथाभूता ये दूर्वागुरुछाः शतपर्वस्तवकास्तैः शवलितं चिग्नितमुपशल्यं समीपप्रदेशो यस्य वयाभूत गृहं सदनं निःशल्यः शाक्यरहितः सन प्रविश्य, अनया वार्तया भनेन समाचारेण गृहिण्या अपि भार्याया अपि १५ श्रवणोत्सर्व कर्णोल्लासं प्रवर्तयन् दुहिसुः पुथ्याः कल्याणमहोत्सवो विवाहमहोत्सवस्तस्मिन् महान्तं संरम्ममुद्योगम् अकुरुत । अथानन्तरम् प्रथमानं अथितीभवद् वीर्यमेव धनं यस्य तथाभूतो यः कुमारी जीवधरस्तस्य संबन्धेन गोधनोपलम्मादपि गोधनप्राश्यपेक्षयापि शंभरः सुखोस्पादकः संभ्रमो येषां तैः गोसंख्यानां गोपानां मुख्यस्य गुणैः, द्विगुणितमौत्सुक्यं यस्य तथाभूता ये जनास्तैर्विहितं कृतं यद विवाहोत्सवकर्म परिणयनोत्सवकर्म तस्मिन् प्रबुद्धे सति, परकवितेति-पल्लवितो वृद्धिंगतो रागो यासो २० तथाभूता या बालवरामा गोपगृहिण्यस्तासां करपलचाना हस्तकिसलयानो संपर्कण पुनरुफराया पुनरुदीरितलौहिल्या या रकमृद् कोहितमृत्तिका तयोपलिप्ता भित्तयः कुख्या यस्मिन् तस्मिन्, रम्भतिवंशका कुलपरम्परागत सेवक हूँ"यह कहा और साथ ही उसने षण्मुख आदि विशिष्ट पुरुषोंका सामान्य जातिमें उत्पन्न स्त्रियों के साथ समागम हुआ है यह कथा सुनायी। आपने मेरा अकारण उपकार किया है, मैं बदले में आपका दूसरा उपकार न देख अपनी कन्या २५ समर्पित कर रहा हूँ"यह भाय प्रकट किया। ६८७. कुरुवंशरूपी आकाशके सूर्य जीवन्धरकुमार, 'नीचकुलकी स्त्रियों के साथ सम्पर्क करना अविवेकी मनुष्यों के लिए सुलभ है' ऐसा विचार करते हुए बोले कि 'अत्यधिक याचना करना व्यर्थ है। मामाजी! आप जो चाहते हैं वह मुझे इष्ट है' इस प्रकार कहकर उन्होंने अपने अभिप्रायकी अनुकूलता प्रकट की। गोपालोंका स्वामो नन्दगोप उतनेसे ही सन्तुष्ट हो ३० गया । वह उनके वचन सुन सुखके सागरमें निमग्न हो गया। जिनका अग्रभाग बछड़ों के द्वारा चबाया गया था ऐसी दूबाके गुच्छोंसे जिसका समीपवर्ती स्थान चित्रित था ऐसे घरमें निःशल्य भावसे प्रवेश कर उसने इस समाचारसे अपनी बीके भी कानोंको आनन्द उत्पन्न कराया । वह अपनी पुत्रीके विषाहोत्सबकी बड़ी-बड़ी तैयारियाँ करने लगा। तदनन्तर प्रसिद्ध पराक्रमरूपी धनके धारक जीवन्धर कुमारके साथ सम्बन्ध होनेसे, गोधनकी प्राप्तिको अपेक्षा ३५ भी अधिक सुख और संभ्रमको धारण करनेवाले गोपपति नन्दगोपके गुणोंसे जो अत्यधिक वृद्धिको प्राप्त हो रहा था, दुगुनी उत्सुकतासे युक्त मनुष्यों के द्वारा जहाँ विवाहोत्सबके कार्य किये गये थे, रागसे भरी गोपालखियोंके हस्वरूपी पल्लवोंके सम्पर्कसे पुनरुक्त लालिमासे १. क० ख० ग० माम, अयथाभिमतम् ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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