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________________ ११३ -विवाहवृत्तान्तः] द्वितीयो लम्मा शुम्भितद्वारि समदंविषटितघटघटाप्रबहदूधस्याज्यदधिकर्दमितभुवि हरितगोमयोपलिप्तस्थलनिष्पादितदम्यशष्पाकुरतृषि कोलाहलक्षुभितवत्सवात्सल्याकुलकुण्डोध्नीकुण्डलितविषाणकोटिविघटितजनविमर्दै गोसंख्यमुख्यावासे स्नातानुलिप्तामलंकृतविस्मितामालोक्य विस्मयस्मेरमुखाभिल्लव वल्लभाभिः 'अस्या वल्लभ एना केन सुकृतेन क्षीरमधुरस्वरामपनीतनबनीतमार्दवाडम्बरां तदात्वगतसपिःसंकाशकायकान्ति मुकुलितथिकामुकुलघवलिम'सौकुमार्यदन्तपडिक्त ५ निर्वासितवायसकालिमकचपल्लवामुद्भिद्यमानदृषककुदोपहासिकुचयुगलामनुभोक्तुं लब्धवान्' इति व्यक्तमुपलाल्यमानां गोदावरीदुहितरं गोविन्दामानीय नन्दगोपः कुमारकरकमले वारि समावर्जयत् । कुमारोऽपि 'अमुं मामेव गात्रमात्रभिन्नं मन्यस्व' इति वदन् 'पद्ममुखाय' इति रम्भास्तम्भोंचास्तम्भैः शुम्भितानि द्वारि यस्य तस्मिन् , संमर्देति-संमर्दैन विघटिता या घटघटा घटश्रेणयस्ताभ्यः प्रवहद्भिः अवस्याज्यदधिमिदुग्धधृतदधिमिः कर्दमिता पशिला भूर्यस्मिस्तस्मिन्, १० हरितेति-हस्तिगोमयेन हरिद्वर्णगोवरेणोपलिप्तैः स्थलैर्निप्पादिता दम्यानो तर्णकानां शष्पाकरतृष्ट् हरिद्धासाङ्करतृष्णा यस्मिंस्तस्मिन्, कोलाहलेति-कोलाहलेन कलकलरवेण क्षुभिताः प्राप्तक्षोभा थे वस्सास्तेषां बारसमयेनाकुलाः याः कुण्डोयो गावस्तासां कुण्डलिवामिवक्रीकृताभिर्विषाणकोटिभिः सामागैर्विघटितो विद्रावितो जमविमर्दो जनसमूहो यस्मिस्तस्मिन् गोसंख्यमुख्यावासे नन्दगोपभवने, आदौ स्नासा पश्चादनुलिप्ता ताम्, अलंकृता धासौ विस्मिता र ताम् आलोक्य विस्मयेनाश्चर्येण स्मेरमुखास्तामिः १५ पल्लववल्लभाभिर्गोपाङ्गनाभिः 'भस्था पक्कमः क्षीरमिव मधुरः स्वरो यस्यास्ताम, अपनीतो दूरीकृतो नवनीतमार्दवाडम्बरो यया वाम् , सदात्वहुतं तरकालनिस्यन्दितं यत् सर्पिघृतं सस्य संकाशा कायकान्तिदेहदीतिर्यस्यास्ताम् , मुकलिताः कुन मलिता पा यूथिकास्तासां मुकुलानां कुमकानामिष धवकिमा सौकुमायं च यस्यास्तथाभूता दसपक्तिर्यस्यास्ताम् , निर्वासितो दूरीकृतो वायसाना काकानां कालिमा पैस्तथाभूताः कचपकषा यस्यास्ताम्, उनियमान प्रकटीमवत् वृषककुदोपहासि कुथुगलं २० पस्यास्ताम् , एवंभूताम् एनां पुत्रीम् भनुमोक्तु केन सुकृतेन केन पुण्येन कब्धवान्' इति म्यतं यथा स्यात्तथा युक्त लाल मिट्टीसे जहाँ दीवालें लीपी गयी थी, जहाँ केलेके खम्भोंसे दरवाजे सुशोभित हो । रहे थे,भीड़की अधिकतासे फूटे हुए घड़ोंके समूहसे निकलकर बहनेवाले दूध, घी और दहीके द्वारा जहाँकी भूमिमें कीचड़ मच रही थी, हरे-हरे गोबरसे लिपे हुए स्थलमें जहाँ बछड़ोंको घासके अंकुरोंकी तृष्णा उत्पन्न हो रही थी, और कोलाहलसे क्षुभित बछड़ोंके स्नेहसे व्यन २५ गायोंके गोल-गोल सींगोंके अग्रभागसे जहाँ मनुष्योंकी भीड़ तितर-बितर की जा रही थी ऐसे नन्दगोपके भवनमें स्नानके अनन्तर लेपको धारण करनेवाली आभूषणोंसे सुसज्जित और आश्चर्थको उत्पन्न करनेवाली गोदावरीकी पुत्री गोविन्दाको देख आश्चर्य से खिलनेवाले मुखांसे मुक्त गोपालक स्त्रियाँ उसकी इस प्रकार प्रशंसा करने लगी | जिसका स्वर दूधके ममान मीठा है, जिसने मक्खनकी कोमलताका आडम्बर दूर कर दिया है, जिसके शरीरकी ३० कान्ति तत्काल पिघलाये हुए घीके समान है, जिसके दाँतोंकी पंक्तिने जुहीको बोंडियोंकी सफेदी और सुकुमारनाको निरस्कृत कर दिया है, जिसके केशोंके अंचलने कौएको कालिमाको दूर कर दिया है, और जिसके बैलको काँदोलकी हँसी उड़ानेवाले स्तनोंकी जोड़ी उठ रही है ऐसी इस कायाको उपभोग करने के लिए इसके पति ने किस पुण्यसे प्राप्त किया है ? गोविन्दाको लाकर नन्द गोपने जीवन्धर कुमारके हस्तकमलमें जल छोड़ा। और कुमारने भी इसे शरीरमात्रसे ३५ १.क.० स० ग. धवलितम ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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