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गद्यचिन्तामणिः
द्वितीय लम्भ ४६-४८. विशाल विद्यामण्डपमें आर्यनन्दी गुरुने जीवन्धरको अनेक विद्याएं प्रदान कर अल्पकालमें ही श्रेष्ठ विद्वान् बना दिया।
८९-९३ ४९-६६. एक दिन एकान्तमें बार्यनन्दी गुरुने जीवन्धरको अपना वृतान्त बतलाते हुए कहा कि मैं विद्याधर लोकमें लोकपाल नामका राजा था। संसारसे विरक्त हो मैंने मुनिदीक्षा घारण की परन्तु भस्मकव्याधि मुझे हो गयी । तब मुनिपद छोड़ एक अन्य साधुके वेषमें रहने लगा। गन्धोत्कटकी भोजनशालामें तुम्हारे हाधसे दिये हए ग्रासको खाकर मैं रोग रहित हुवा बौर प्रत्युपकार के रूपमें तुम्हें विद्या प्रदान कर कृतकृत्य हुआ हूँ। साथ ही उन्होंने जीवन्धरको राजा सत्यन्धरका पुत्र बतलाया तथा एक वर्ष तक शान्त रहनेका उपदेश देकर राजनीतिका सुन्दर उपदेश प्रदान किया ।
९४-११८ ६७-६/ मार्गगल्ती गुल्ले पुनः मुग्लिीनर लेकर मोक्ष प्राप्त किया
११८-१२० ६९-७७. इसी बीचमें भीलोंके एक दलने राजपुरीके गोपालोंको गायोंका अपहरण कर लिया। दे रोते-चीखते काष्ठांगारके पास आये । द्वारपालने काष्ठांगारको सूचना दी और काष्ठांगारने . . रक्षाके लिए सेनाको आदेश दिया, पर बकर्मण्य सेना भीलोंके दलसे पराजित होकर वापिस आ गयी। इस घटनासे गोपालोंमें बहुत बेचैनी बढ़ गयी । गोपालोंके प्रमुख नन्दगोपने नगर में घोषणा करायी कि, 'मैं हमारी गायोंको वापिस ला देनेवालेके लिए सूवर्णकी सात पुतलियों के साथ अपनी पुत्री दूंगा।
१२१-१३२ ७८-८८. इस घोषणाके बावजूद भी जब कोई वीर आगे नहीं आया तब जीवन्धरने अपने मित्रोंके साथ जाकर भीलोंके दलको परास्त कर उनसे गोपालोंकी गायें वापिस छीन ली। इससे जीवन्धरका सुयश सर्वत्र फैल गया। नन्दगोपने घोषणाके अनुसार अपनी पुत्री जीवन्धरको देनी चाही पर उन्होंने स्वयं पुत्रीको न ले पद्मास्य मित्रको पुत्री प्रदान करायी। पचास्य । गोविन्दाको प्राप्त कर प्रसन्न हुआ ।
१३३-१४४ तृतीय लम्भ ८९-९१. जब पास्य गोविन्दाको प्राप्त कर प्रसन्न था और जीवन्धर कुमार अपनी शौर्यशक्तिको बढ़ानेमें संलग्न थे तब राजपुरीका रहनेवाला श्रीदत्त वैश्य अर्थोपार्जनको भावनासे लहराते हुए समुद्र में जहाज-द्वारा यात्रा कर रत्नद्वीप गया और वहाँसे बहुत भारी सम्पत्तिका संचय कर वापस लौटा। वह इस किनारेपर आनेवाला ही था कि समुद्र में जोरदार तूफान उठा । जहाजके यात्री उद्विग्न हो उठे। श्रीदत्तने सबको सान्त्वना दी। अन्त में जहाज डूब गया और श्रीदत्त एक लकड़ीके मस्तूलके सहारे तैरकर किसो द्वीपमें पहुंचा।
१४५-१५० ९२-९५ संसारकी असारताका विचार करता हा श्रीदत्त वहाँ बैठा था कि उसकी दृष्टि एक घर नामक विद्याधरपर पड़ी। उसकी प्रेरणासांवत्त एक मायामयी ऊटपर बैठकर आकाश. मार्गसे चला और विजया पर्वतपर जा पहुँचा । घर विद्याधरने उसे समुद्र में तूफान उत्पन्न करनेकी माया तथा विजयापर लाये जाने का प्रयोजन बतलाया। उसने कहा कि यहाँ नित्यालोक नगर के राजा गरुड़वेगकी धारिणी नामक स्त्रीसे उत्पन्न हई गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री हैं। निमित्तज्ञानियोंने उसका विवाह सम्बन्ध राजपुरीमें बीणा वादनके द्वारा विजय प्राप्त करनेवाले किसी युवाके साथ बतलाया है, राजपुरीका श्रीदत्त वैश्य राजा मरुड़वेगका परिचित है इसलिए उसे तफानके छलसे यहाँ लाने का उपक्रम किया गया है। राजा गरुडवेगने श्रीदत्त वैश्यका बहत सत्कार किया और अपनी कन्या उसे सौंपते हुए कहा कि आप वीणास्वयंवरका आयोजन कर इसका विवाह कर दें।
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