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विषयानुक्रमणिका
९९ - १०९. श्रीदत्त, शुभमुहूर्त में प्रस्थान कर गन्धर्वदत्ता के साथ राजपुरी आया ओर वोणा स्वयंवरको तिथि निश्चित कर राजकुमारोंके पास निमन्त्रण भेजने लगा । निमन्त्रण पाकर अनेक राजकुमार स्वयंवर मण्डप में लाये । सजधज के साथ गन्धर्वदत्ता भी स्वयंवर मण्डप में पहुँची । उसने परिचारिका के हाथसे वीणा लेकर बजायी तो सब राजकुमार चकित रह गये । कोई भी उसकी तुलना नहीं कर सका । जीवन्धर कुमार भी स्वयंवर में सम्मिलित होनेके लिए घरसे निकले ।
११०-११४. जीवन्वरकी सुन्दरता और चाल-ढालसे सब राजकुमार प्रभावित हुए। जीवन्धर - ने गन्धर्वदत्त की बीणाम अनेक दोष बताकर उससे दूसरी निर्दोष वीणा बुलवायी और उसे बजाकर सबको चकित कर दिया । यन्धर्वदत्ताने अपनी पराजय स्वीकृत कर जीवम्बर कुमारके गले में वरमाला डाल दी ।
११५-१२० काष्ठांगारने ईर्ष्याविश उपस्थित राजकुमारोंको जीवन्धरके विरुद्ध उकसाया, फलस्वरूप युद्ध हुआ पर जीवन्धरने सबको परास्त कर दिया । जीवन्धर, गन्धर्वदत्ता के साथ गन्धोत्कट के घर पहुँचे । वहाँ उत्तम मुहूर्तमें पाणिग्रहण संस्कार हुआ और श्रीदत्त वैश्य के द्वारा प्रदत्त गन्धवंदत्ताको प्राप्त कर कृतकृत्य हुए ।
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चतुर्थ लम्भ
१२१ - १२६. जीवन्धर, गन्धर्वदत्ता के साथ सुखानुभव करने लगे। इसी बीच वनन्तऋतु आ गयो । वनकी शोभा निराली हो गयी । वनक्रीडाके लिए नागरिक लोग अपनी-अपनी प्रेयसियोंके साथ विविध वाहनोंपर आरूढ़ होकर घरोंसे निकले । जीवन्धर कुमार भी अपने सखाओके साथ वन महोत्सवमें गये । वहाँ एक कुत्ताको कुछ ब्राह्मणोंने इतनी निर्दयतापूर्वक पीटा था कि वह मरणोन्मुख दशा में कराह रहा था । जीवन्धरने उसे पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया। उसके प्रभावसे वह चन्द्रोदय पर्वतपर सुदर्शन यक्ष हुआ । उसने आकर जीवन्धरकुमारको अपना परिचय देते हुए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और विपत्तिके समय स्मरण करने की प्रार्थना की। प्रार्थना कर यक्ष चला गया ।
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१८१ - १८८
१२७- १२८. उसी समय राजपुरीके प्रमुख सेठोंकी पुत्रियों --- गुणमाला और सुरमंजरी में अपनेअपने चूकी उत्कृष्टताको लेकर विवाद चल पड़ा और शर्त यह हुई कि जो इसमें पराजित होगी वह नदी में स्नान नहीं करेगी। चूर्णो की परीक्षाका अन्तिम निर्णय देते हुए जीवम्बर ने गुणमाला चूर्णको सर्वोत्कृष्ट बतलाया | शतके अनुसार सुरमंजरी स्नान के बिना वापस लोट गयी । उसे लगा कि जीवन्धरने गुणमालाका पक्ष लिया है। फलस्वरूप उसने अपने अन्तःपुरके पुरुषमात्रका आना बन्द कर दिया । उसकी आन्तरिक इच्छा जीवन्धरको हो वल्लभके रूपमें प्राप्त करने की थी ।
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१९८-१९१७
१२९ - १४१. काष्ठागारका उपद्रवी हाथी गुणमालाकी ओर बढ़ा आ रहा था। उसके सब साथी उसे छोड़ भाग गये थे । मात्र एक वृद्धा धाय उसके आगे खड़ी रह गयी | इस दयनीय अवस्थाको देख जीवन्धरने हाथीसे द्वन्द्व कर उसे वशमें किया और गुणमालाको प्राणरक्षा की 1 इस संदर्भ में गुणमाला और जीवन्धरका परस्पर अनुराग हो गया । दोनों विप्रयोग श्रृङ्गारका अनुभव करने लगे। गुणमालाने जीवन्धर के पास क्रीडा शुकके द्वारा पत्र भेजा । जीवन्धरने उसका उतर दिया। चर्चा दोनोंके माता-पिता तक पहुंची । अन्त में सबकी संपतिसे शुभ मुहूर्त में दोनोंका पाणिग्रहण संस्कार हुआ ।
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२०१-२१४