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________________ - स्वयंवरायोजनम् ] तृतीयो लम्भः मधुरस विसरवर्षिकुसुमदामोत्करमनोहरं रणित मणिकिङ्किणीमालिकालिङ्गितविकटविद्रुमयष्टिप्रतिष्टितपवनतरलधवलध्वजपटपङ्क्ति परिहसितसुरसरितरङ्गजालं, जालविवर विसर्पिमन्दसमोरसीमन्तायमानकाला गुरुधूपपरिमलाञ्चितवियदन्तरालमचिन्त्या भोगरूपसंस्थानं नभस्तलमिव समस्तलोकावगाहनावकाशदानदक्षम्, सागरमिव नैकरत्नसंपन्नम् अनिमिषसदनमिवानिमेगलोचनताविधानविदग्धम्, चन्द्रशेखरमिव शेखरीकृतशीतांशुमण्डलम्, विष्णुमिव विष्णुपदव्यापिनम् शतानन्दमिव ५ सदा लोकसंपादिनम्, जिनेश्वरमिव जगत्त्रयश्लाघनीयम्, महनीयनिर्माणातिशयविशेषविस्मापित १६७ मधुरस विसरवर्षिकुसुम दामोत्करा मकरन्दरससमूह वर्षिपुष्पस्त्रक्स महास्तैर्मनोहरम्, रणिकाभी रणरणनयुकाभिर्मणिकिणीमालिकामा रत्नमयक्षुद्रघण्टिका संततिमिरालिङ्गिता वेष्टिता या विकटविदुमयष्ट्यो विशालप्रभालदण्डास्तासु प्रतिष्टिता या पत्रनतरलघबलम्व जपाको वायुचपलसितबैजयन्तीवस्त्रप यस्ताभिः परिहसितं तिरस्कृतं सुरसरितो मन्दाकिन्यास्तरङ्गजाले कलोलसमूहो यस्मिन् १० तन् आलविवरेषु याशापनरन्ध्रेषु विसर्पिणा प्रसरता मन्दसमीरेण मन्दपवनेन सीमन्तायमानः स्त्रीकेशविन्यासवदाचरन् यः कालागुरुधूपस्तस्य परिमलेनाञ्चितं शोभितं विग्रदन्तरालं व्योममध्यं यस्मिन् तथाभूतम् आभोगश्च विस्तारश्च रूपं च शोमा च संस्थानमा कृतिश्चेस्या भोगरूपसंस्थानानि, अचिन्त्यानि आभोगरूपसंस्थानानि यस्य तम्, नभस्तलमिव गगनतलमिव समस्तश्वासी लोकश्चेति समस्तलोकः त्रिचत्वारिंशदुत्तरत्रिशतरज्जुपरिमितो लोकस्तस्यावगाहनाय स्थानायावकाशदाने दक्षं समर्थ पक्षे समस्ताश्च ते लोकाचेति समस्तलोका निखिलजन (स्तेषामवगाहनाय विकाशदाने दक्षम्, सागरमिव रत्नाकरमिव नैकर स्नैर्विविधरत्नैः पक्षे नानाविधोकृष्ट पदार्थों: संपनं सहितम्, अनिमिपसदनमिव देवभवनं- स्वर्गमित्र अनिमिषलोचनताया treat पक्षे विस्मयातिशयेन नेत्रपक्ष्मपावराहित्यस्य विधाने विदग्धं चतुरम्, चन्द्रशेखरमिव शिवमिक पोखरीकृतं मुकुटीकृतं शीतांशुमण्डलं चन्द्रबिम्बं येन तमू, शिवः स्वभावाच्चन्द्रशेखरो मण्डपस्तुश्चत्वा चन्द्रचुम्बी बभूवेति भावः विष्णुमिव विष्णुपदे गगने व्याप्नोतीत्येवंशी कस्तम् विष्णुविक्रियाकृतचरणत्रयेण २० गगनं व्याप्नोत् मण्डपस्तु विस्तारातिशयेन गगनग्याभ्यासीदिति भावः, शतानन्दमित्र ब्रह्माणमित्र सदा सर्वदा लोकसंपादन] लोकस्त्रशरम् पक्षे संश्चासावालोकश्चेति सदालोकः समीचीनप्रकाशस्तस्य संपादिनम्, १५ चाटकर उगले हुए मकरन्द रसके समूहको वर्षानेवाले फूलों की मालाओंके समूह से वह मनोहर था । रुनझुन शब्द करनेवाली मणिमय क्षुद्रघण्टिकाओं की पंक्तिसे आलिंगित मूँगाकी बड़ी-बड़ी लाठियोंपर लगी हुई हवासे चंचल सफेद वस्त्रको ध्वजाओं की पंक्तिसे वह २५ आकाशगंगाको तरंगों के समूहकी हँसी उड़ा रहा था। जालीके छिद्रों में प्रवेश करनेवाली मन्दायुके सीमन्त - केशपाशके समान दिखनेवाले कालागुरु चन्द्रन की धूपकी सुगन्धिसे उसने आकाशके अन्तरालको सुशोभित कर रखा था। उसका विस्तार रूप और आकार अचिन्त्य था । वह आकाश के समान समस्त मनुष्योंको अवगाहन देनेवाले अवकाशके देने में समर्थ था । समुद्र के समान अनेक रत्नोंसे सम्पन्न था। अनिमिषसदन – देव भवन के समान ३० अनिमेषलोचनता - देवपना ( पक्ष में टिमकाररहित नेत्रोंके करनेमें निपुण था । महादेवके समान चन्द्रमण्डलको सेहरा बनानेवाला था अर्थात् जिसप्रकार महादेव अपने शिरपर चन्द्रमण्डलको धारण करते हैं उसीप्रकार वह मण्डप भी ऊँचाईके कारण अपने अग्रभागपर चन्द्रमण्डलको धारण कर रहा था । विष्णुके समान विष्णुपद - आकाशमें व्याप्त था । शतानन्द - ब्रह्मा के समान सदालोकसम्पादी था अर्थात् जिसप्रकार ब्रह्मा सदालोक - संसारकी ३५ रचना करनेवाले हैं उसीप्रकार वह मण्डप भी सदालोक - समीचीन प्रकाशको करनेवाला
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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