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________________ ᅲ + ז: न - जनपदवर्णनम् ] प्रथमो कम्मः भिरामैः आरामविनोदितलोकलोचनः प्रतिफलिततरुहतरुनिवह्निभेन जलनिधिजिगीषया स्वयमपि कल्पतरूनिव कतिचन जठरे धारयद्भिः उद्दण्डकमल विष्टरोपविष्टकादम्बकदम्बकः उत्फुल्लकह्लारनिःस्यन्दिमकरन्दमेदुरितपाथोभिः पवनोद्धूत कल्लोलपटलकवलित वियदवकाशैः पाथीराशिपरिवभूषया सागरमहिषीं मन्दाकिनी बन्दीकर्तुमन्तरिक्षमुत्पतद्भिरिव प्रेक्ष्यमाणै: समन्तादुभिपदुत्पलजालजटिलैः जनपदलक्ष्मीदिदृक्षया सहस्राक्षतामिव विद्भिः शुभ्रसलिलभरितजठरैः जलाशयदशितानेकसागरमहिमा, क्वचित्पाककपिशकािभरविनमितशिरोभिः आत्मरोहावकाशदायिनी मेदिनीमभिवादयमानैरिव शालिस्तम्वः शुभितशालेयेन क्वचिद्विह्रमाणकमलाचरणतुलाकोटिक्स ११ ५ विकसितानि यानि कुसुमानि तेषामवचत्रस्य त्रोटनस्य कौतुकन मिलिताः समागता या महिला नार्यस्तासां निर्विशेषा तुलिता या लता वर्यस्ताभिरभिराममनोहरैः । आरामैरुपत्रनैः विनोदितानि लोकलोचनानि जननयनानि यस्मिन् तथाभूतो हेमाङ्गद जनपदः । पुनश्च प्रतिफलितः प्रतिविम्बितो यस्टरह- १० वरूणां तरोत्पन्नवृक्षाणां निवहः समृहस्तस्य निभेन व्याजेन जलनिधिजिगीषया सागरं विजेतुमिच्छया स्वयमपि स्वतोऽपि कल्पतरूनिव देवानीकहानिव कतिचन कियतोऽपि जठरं मध्यं धारयद्भिः, उद्दण्डंपूतंपु कमल विष्टरंतु पद्मासनेषूपविष्टानि कादम्बकदम्बकालि कलहंससमूहा येषु तैः । उत्फुल्लल्हारेभ्यो विकसितश्वेतकमलेभ्यो निःस्यन्दिभिः प्रक्षरद्भिर्मकरन्दे को सुदुरितानि वृद्धिङ्गतानि पायांस जवानि येषां तैः । पवनेनोदूना उत्थापिता ये कल्लोलास्तरङ्गास्तेषां पटलेन समूहेन कवलिताग्रस्त विकाश १५ रागान्तरं येस्तैः । अन एव पाथोरासेः सागरस्य परिबुभूषया पराभवेच्छया । सागरमहिषीं सागरपटराजों मन्दाकिनी वहां कर्तुं कारागृहे धर्तुम् अन्तरिक्षं गगनम् उत्पतद्भिरिव प्रेक्ष्यमाणैः । समन्धपरितः उन्मिषतां विकसतामुत्पलानां नीलकमलानां जालेन समूहेन जटिलैव्याप्तिः, अत एव जनपददिक्षण पर सहस्रमक्षीणि येषां ते सहस्राक्षस्तयां भावस्ततां विद्भिरिव । शुभ्रसलिलेन धवलजलेन भरितं जयरं येषां तैः । एवंभूतैर्जलाशयैः कासारः दर्शितः प्रकटितो. २० नकसागराणां नानाम्नां महिमा येन स तथाभूतो हेमाङ्गदनामा जनपदः । पुनश्च क्वचिकुत्रापि पाकेन परिणामेन कपिशाः पिङ्गलवर्णा ये कणिशा धान्यम अर्यस्तेषां मरण समूहेन विनमितानि शिरांसि करती थीं तथा खिले हुए पुष्पोंके चयन सम्बन्धी कौतूहलसे इकट्ठी हुई महिलाओंके समान लताओंसे वे उद्यान सुन्दर थे । प्रतिबिम्बित किनारे के वृझोंके समूह के बहाने जो समुद्रको जीतने की इच्छा से स्वयं ही मानों अपने उदर में कुछ कल्पवृक्षोंको धारण कर रहे थे, जिनके २५ ऊँची दण्डीवाले कमलोंके आसनपर कलहंसों के समूह बैठे थे, खिले हुए सफेद कमलों से झरनेवाले मकरन्दसे जिनका पानी मिला हुआ था, वायुसे उठती हुई तरंगों के समूह से जिन्होंने आकाशक अवकाशको व्याप्त कर रखा था और इसीलिए जो समुद्रका पराभव करने की इच्छासे उसकी स्त्री आकाशगंगाको बन्दी बनानेके लिए मानो आकाशमें उछलते हुए-से दिखाई देते थे, जो सब ओर खिले हुए नीलकमलों के समूह से व्याप्त थे और इसीलिए ३० जो देशकी लक्ष्मीको देखने की इच्छासे ही मानो हजार नेत्र धारण कर रहे थे तथा जिनका मध्य-भाग उज्ज्वल जलसे भरा हुआ था, ऐसे तालाबों से वह देश अनेक सागरोंकी महिमा दिखला रहा था। उस देशके निकटवर्ती गाँवोंके समीपवर्ती प्रदेश कहीं तो पक जाने से पोली-पीली दिखनेवाली बालोंके भारसे जिनके शिर नत्रीभूत हो रहे थे और उनसे जो अपनी उत्पत्तिके लिए अवकाश देनेवाली पृथिवीको नमस्कार करते हुए-से जान पड़ते थे, ऐसे धानक ३५ पौधोंसे सुशोभित खेतोंसे युक्त थे। कहीं घूमती हुई लक्ष्मीके चरण नूपुरोकी झनकारक १ म० - कादम्बकदम्बैः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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