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________________ ८२ १५ गद्यचिन्तामणिः [४३ जीवन्धरस्य शैशवकालः प्रजानामवर्धत जीवन्धरः । तेन च प्रतिदिवसमुदयमासादयता जलनिधिरिव चन्द्रेण कमलाकर इव दिवसकरेण नितरामैधिष्ट गन्धोत्कटः । $ ४३, प्रमदोत्कटे गच्छति काले कलहंसपोत इव कमलात्कमलं दर्पणमिव कराकर धात्रीणामुपसर्पन्, प्रसर्पता निर्हेतुकहसितचन्दालोकेन बन्धजनहृदयकुमदाकरमुल्लासयन् उन्मी५ लिते निखिलभुवनव्यापिनि निजतेजसि किमनेनेति गृहप्रदोपानिर्वापयितुमिव स्प्रष्टुमिच्छन्, अतुच्छरत्नशिलाघटितभवनभित्तिसंनिवेशदृश्यमानमात्मप्रतिबिम्बमद्वितीयताभिनिवेशेन नायितुमिव परिमृशन्, भाविभर्तृभावावबोधिन्या मेदिन्येव विहारधूलीव्याजेनालिङ्गितशरीरः, समीरतरलितानेरलिकतटविलुलितैरलिनिचयमेचकैः कचपल्लवैलिभाव एवं वल्लभत्वमभिलषन्त्याः उदयमभ्युदयम् आसादयता प्राप्नुवता तेन च पुत्रेण गन्धोत्कटः चन्द्रेण जलनिधिरिब सागर इव दिवस१० कोण सूर्येण कमलाकर इद पनवनमिव नितरां सातिशयम् ऐधिष्ट चवृधे । ६४३. प्रमदोत्कट इति–प्रमदेन हर्षेणोरकटस्तस्मिन् 'मुत्प्रीतिः प्रमदो हषः प्रमोदामोदसंमदाः' इत्यमरः । कालेऽनेह सि गच्छति सति, कमलात्कमलं कलहंसपोत इव कादम्बशावक इच, दर्पणमिय मुकन्दमिव धानीणामुपमातणां कराकर हस्ताद्ध स्तमुपसर्पन , प्रसर्पता प्रसरता, निहें तुकं निनिमित्तं हसितमेव चन्द्रालोक इन्दुप्रकाशस्तेन बन्धुजनहृदयकुमुदाकर बन्धुजनमन: कैरवकाननम् उल्लासयन् विकासयन्, निखिलभुवनं कृत्स्नलोकं व्याप्नोतीत्येवं शीलं तस्मिन् निजतेजसि स्वप्रतापे उन्मीलिते प्रकटिते सप्ति अनेन किं प्रयोजनमिति हेतोः गृहप्रदीपान् निर्वापयितुं विध्यापयितुमिव स्पष्टुमिच्छन् , अतुच्छामिविशालामी रत्नशिलाभिघटिता रचिता या भवनभित्तयस्तासां संनिवेशे दृश्यमानमवलोक्यमानम् आरमप्रतिबिम्ब स्वप्रतिकृतिम् अद्वितीयताया अभिनिवेशस्तेन सदाहमाद्वितीयः स्यामित्यमि प्रामेणेव नाशयितुं परिमृशन स्पृशन्, भावी चालो मतृभावश्चेति भाविमतभावो भाविपतिमावस्तस्याव२० पोधिनी तया मेदिन्येव पृथिव्येव विहारधूलीच्याजेन क्रीडापरागदम्भन आलिङ्गितं शरीरं यस्य तथाभूतः, • समीरेण वायुना तरलितं चञ्चलीकृतमग्रं येषां तैः अलिकतटे भालसटे विलुलितास्तैः अलिनिश्चय इव भ्रमरसमय उनका सौन्दर्य प्रतिदिन बढ़ता जाता था । जिस प्रकार प्रतिदिन उदयको प्राप्त होनेवाले चन्द्रमासे समुद्र और सूर्यसे कमलोंका समूह बढ़ता है उसी प्रकार प्रतिदिन अभ्युदयको प्राप्त होनेवाले जीवन्धर कुमारसे गन्धोत्कट भो अत्यन्त बढ़ता जाता था-ऐश्वयसे सम्पन्न २५ होता जाता था। ६४३. तदनन्तर हर्ष से परिपूर्ण समयके व्यतीत होनेपर जिस प्रकार कलहंसका बच्चा एक कमलसे दूसरे कमलपर और दर्पण एकके हाथसे दूसरेके हाथमें जाता है, उसी प्रकार जीवन्धर कुमार भी धायोंके एक हाथसे दूसरे हाथमें जाने लगा। वह फैलते हुए अकारणक हास्यरूपी चन्द्रमाके प्रकाशसे बन्धुजनोंके हृदयरूपी कुमुद्र-वनको उल्लसित करने ३० लगा। वह कभी घरमें जलते हुए दीपकोंक। छूने की इच्छा करता था और उससे ऐसा जान पडता था मानो समस्त संसार में व्याप्त अपने तेज के प्रकट हानेपर अब इसकी क्या आवश्यकता है? यह विचारकर उन्हें वझाना ही चाहता था। बडी-बडी रत्नोंकी शिलाओंसे निर्मित भवनकी दीवालोंमें दिखाई देनेवाले अपने प्रतिबिम्बका स्पर्श करता हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वयं अद्वितीय रहनेकी भावनासे उसे नष्ट ही करना चाहता हो । 'यह ३५ आगे चलकर हमारा पति होगा' यह जानकर ही मानो क्रीड़ाधूलिके बहाने पृथिवी उसके शरीरका आलिंगन करती थी। वायुसे जिनका अग्रभाग हिल रहा था ऐसे ललाट तटपर
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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