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________________ गधचिन्तामणिः [ १२६ सारमेयस्यतथाहि'--निकारणमिदं मत्परित्राणमिति सति कार्पण्यकारणे रिक्तं वचः । दृष्टो मन्त्रस्य महिमेति जिनशासनलघुकरणम्। ईदशसामर्थ्यशालिता नानावि क्वचिदित्यपि न वार्तम् । प्रतिनियतसामर्थ्या हे पदार्थाः । अचरमोऽयमुपकार इति भवदवधानपरिच्छेदः । कृतार्थीकृतस्त्वयामिति त्रिभुवनकार्तार्थ्यविधायिनस्ते न विशेषसमर्थनम्। साक्षादसि प्रत्यक्षसर्वज्ञ इति चरमदेहधारिणस्ते ५ सिद्धानुवादः । समाश्रितकल्पद्रुमोऽसीति निशितप्रज्ञावधृतपात्रप्रकर्षस्य ते निकपः । भवति पर्यव न कापीत्यर्थः । तथा हि-इदं मापरित्राणं मदक्षर्ण निष्कारणं निर्मिमित्तम् इति कार्पयकारणे देन्यता मति वचो रिनं शून्यं व्यर्थमिति यावत् । मन्त्रस्य महिमा प्रभावी दृष्टो विलोकित इति जिनशासनलघू. करणं जिनशासनस्य ततोऽप्यधिककर्तृत्वे शकत्वात् । ईशसामध्यंशालिता एतादृशशक्तिशोभिता स्वचित् कुत्रापि नानावि न श्रुता इत्यपि न वातं न युवतम् , हि यतः पदार्थाः प्रतिनियतं सामर्थ्य शास्वं १.. येषां तथाभूताः सन्तीति शेषः । अचरमोऽन्तरहितोऽयमुपकार इति कथने भवदवधानस्य परिच्छेदस्त्वदीय शक्तिनिर्धारणम् । अहं त्वया कृतार्थीकृतः कृतकृत्यो विहित इति निवेदनं त्रिभुवनस्य लोकत्रयस्य काय विदधातीत्येवंशीलस्तस्य ते तव न विशेषसमर्थनं चैशिष्टयसूचकम् । 'वं साक्षात् प्रत्यक्षसर्वज्ञः असि' इति निवेदनं चरमदेहधारिणस्ते तद्भवमोक्षगामिनस्त सिद्धानुबादः कथितस्य पुनः कथनम् । समाश्रितानां शरणागतानां कल्पगुमो देवतरसीति निवेदनं निशितप्रज्ञया तीक्ष्णबुद्धयावतो विज्ञात; पात्रप्रकर्षः पात्र१५. वैशिष्ट्यं येन सथाभूतस्य त निकर्षा होनत्वं कल्पवृक्षः पात्रापात्रविवेकरहितस्त्वं तु तन सहित इति कल्य. दुमीपमानेन तब हीनत्वं स्यादिति भावः । भवति त्वयि परोपक्रिया परोपकारः पर्यवस्यति परिपूर्णा - - - माहात्म्य कहनेके लिए कौन-सी वाणी समथे हे ? फिर भी यदि यह कहता है कि आपने अकारण ही मेरी रक्षा की है तो दीनताका कारण रहते हए मेरा वह कहना खाली जाता है अर्थात् आपने मुझे दोन आभारी बनाने के लिए मेरी रक्षा की है अतः उसे अकारण बनाना २० उचित नहीं है । यदि यह कहता हूँ कि मन्त्रकी महिमा देख ली तो यह कहना जिनशासनको लघु करना है क्योंकि उसकी महिमा तो इससे भी बढ़कर है। ऐसी सामर्थ्य से सुशोभित होना किसी दूसरेमें नहीं सुना यह कहना भी व्यर्थ है क्योंकि पदार्थ प्रतिनियत सामर्थ्यसे सहित हैं। यदि यह कहूँ कि आपका यह सबसे बड़ा उपकार है तो ऐसा कहना आपकी मनो वृत्ति की सीमा निश्चित करना होगा। यदि यह कहूँ कि आपने मुझे कृतार्थ कर दिया है तो २५ यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि तीनों लोकोंको कृतार्थ करनेवाले आपकी यह विशेषताका समर्थन होगा। अर्थात् जो सामान्य रूपसे सबको कृतार्थ करनेवाला है उसके लिए पृथक् रूपसे कहना कि यह अमुकको कृतार्थ करनेवाला है यह उचित नहीं। यदि यह कहा जाय कि आप साक्षात् प्रत्यक्ष सर्वज्ञ हैं तो यह कहना चरमशरीरको धारण करनेवाल आपके लिए स्वयंसिद्ध वस्तुका कहना होगा। अर्थात् चरमशरीरी होनेसे आप सर्वज्ञ तो होग ही अतः ३. आपको सर्वज्ञ कहकर आपकी विशेषता बताना उचित नहीं है । यदि यह कहूँ कि आप आश्रित मनुष्योंके लिए कल्पवृक्ष हैं तो तीक्ष्ण बुद्धिसे पात्रकी श्रेष्टनाको समझनेवालं आपके लिए अपवादकी बात होगी । अर्थात् जब कि आप अपनी तीक्ष्ण बुद्धिसे पात्रको सारता और असारताका विचार कर सकते हैं तव कल्पवृक्ष इस विचारसे रहित है उससे तो जो भी माँगें वही प्राप्त कर लेता है अतः आपको कल्पवृक्ष कहना ठीक नहीं है। यदि कहा जाये कि आपमें १. ग. तथापि । २. म० ते विशेषसमर्थनम् ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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