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________________ - सुग्योपमोगः ] सप्तमो लम्भः २७१ वक्त्रे हृदि च सुवृत्तोद्भासिनीम्, सपत्नीनिवये कचभारे च कालिममयों क्षेमश्रियं पश्यन्, स्पृष्टदष्टतदीयाखिलाङ्गतया हटतमः "प्रिये, त्वामेवमनारतभोग्याममयंभोग्याभिरप्सरोभिरुपमेयशोभा कथमदीरयामि' इत्युपलालयन्नतिगृधनुरिवालंबुद्धिमनासेदिवानतिष्ट । ६१८०. एधमनिर्वृतिसुखया निर्वृतिसुतया सममतिमात्रनिर्वृतिमधिजग्मुषस्तस्य गन्धर्वदत्तापतेर्गत्वरतां ज्ञात्वा प्रियसखोव प्रतिपिद्धप्रयाणा प्रावृडाविरासीत् । तस्मिश्च स्तबकितकदम्बे ५ कन्दलित कन्दले मुटित मुष्ट जपण्ड ताण्डवतरलशिखण्द्विान स्फुरदाखण्डलकोदण्डे खण्डितमहीकोमलां च, वचसि व चने ग्रीवायां च मिताम् अहाभाषिणीम् अदी| च, वक्त्रे मुखे हृदि च स्वान्ते च सुतदासिनी वतुल कारसोभिनी सदाचारशोमिनी च, समानः पतिर्यासा ताः सपत्न्यस्तासां निचयस्तस्मिन् अधिविनासमूहे कधभारे केशकलापे च कालिममयी मात्सर्थ युक्तां काणंसहितां च, क्षेमश्रियं नववल्लभा पश्यम् बिलोकमानः स्पृष्टानि कृतस्प नि दृष्टानि विलोकितानि चाविकाङ्गानि निखिलावयवा येन तस्य १० भावस्त या हटतमः अतिशयेन प्रसन्नः सन् 'निये ! हं वल्लभे ! एबमनेन प्रकारेण अनारत निरन्तरं भोग्यां मोगाहीं त्वाम् मत्यरुपभोग्या भोगास्तिभिः पले अमर्त्या देवास्ताँग्यास्ताभिः अप्सरोभिः देवामिः उपमेया उपमातुं योग्या शोभा यस्यास्तथाभूतां ताम कथं कन कारणेन उदीरयामि कथयामि' हतीत्यम् उपलालयन् प्रशंसन अतिगृनुरिवात्यासक इव अलंबुद्धिं तृप्तभावनाम् अनासेदिवान् भप्राप्तोऽवतिष्ट । ६८०. एव मिति-वमनेन प्रकारंण अनिबृति अतृतिमत् सुखं यस्यास्तया निवृतिसुतया १५ क्षेमश्रीवल्लभ या सम सार्धम् अतिमात्रनिर्वृसिमतिशय संतोषम् अधिजग्मुषः प्राप्तवतस्तस्प गन्धर्वदसापते जीवंधरस्य गस्वरतां गमनशीलनाम् ज्ञात्या प्रियसखीव नियसहचरीत्र, प्रतिषिद्धं विरुद्ध प्रयाणं प्रस्थानं यया तथाभूता प्रावृद्ध वर्षतुः भाविरासीत् प्रकटीबभूव । तस्मिश्च पयोधरसमय जलदकाले परिगमति वृद्धि प्राप्नुवति सति । अथ पयोधरसमयस्य विशेषणान्याह-स्तबकिता: सगुच्छाः कदम्बा नीपवृक्षा यस्मिस्तस्मिन् , कन्दलिताः कन्दलयुक्ताः कन्दलाः शल्पविशेषा यस्मिस्तस्मिन् , स्फुटितो विकसित: २० थी। वचन और ग्रोबा-दोनों में परिमित थी अर्थात् वह परिमित वचन बोलती थी और उसकी ग्रीवा परिमित थी-छोटी थी। मुख और हृदय-दोनोंमें सुवृत्तोद्भासिनी थी अर्थात् उसका मुख गोलाकारसे सुशोभित और हृदय सदा चारसे शोभायमान था। और सौतोंके समूह तथा केशपाश-दोनोंमें कालिमासे युक्त थी अर्थात् सौतोंके समूहको कालिमासे युक्त करती रहती थी और उसके केशपाश अत्यन्त कालिमासे युक्त थे। क्षेमश्री के समस्त शरीरको २५ छूने तथा देखनेसे अत्यन्त हर्षित होते हुए जीवन्धरकुमार हे प्रिये ! तुम तो इस तरह निरन्तर भोगनेके योग्य हो और अप्सराए अमर्त्य भोग्या हैं-मनुष्य के भागने योग्य नहीं हैं ( पक्षमें देवोंके द्वारा भोगने योग्य हैं ) इसलिए तुम्हारी शोभा उनके तुल्य है यह कैसे कह दूं।' इस प्रकार उसकी प्रशंसा करते रहते थे। वे अत्यन्त आसक्तके समान ही अलंबुद्धिको-बस, अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है इस भावनाको प्राप्त ही नहीं होते थे। । १८०. इस प्रकार अनस्तमित सुखको देनेवाली निर्वृतिसुता-क्षेमश्रीके साथ जब जीवन्धरस्वामी अत्यधिक सुखको प्राप्त हो रहे थे तब वर्षाऋतु प्रकट हो गयी। वह वर्षाऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो जीवन्धरस्वामीकी गतिशीलता-धुमक्कड़ प्रकृतिको जानकर प्रिय सस्त्रीके समान उनके प्रयाणको रोकने के लिए ही प्रकट हुई थी। तदनन्तर जिसमें कदम्बके वृक्ष गुच्छोंसे लदबदा रहे थे, नये-नये अङ्कर उत्पन्न हो रहे थे, कुटजोंके समूह विकसित ३५ हो रहे थे, मयूर ताण्डव नृत्यसे चंचल हो रहे थे, इन्द्रधनुष प्रकट हो रहा था, राजाओंकी १. क. ग० स्पष्ट ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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