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________________ [ १७९ जीवंधरस्य क्षेमश्रिया सह सप्तमो लम्भः ६१७६. अथ तां पृथुनितम्बामयं प्रथमविवाह इव प्रथमानप्रोति. परिणीय परिणमदनिवारणमदनमदवारणववितवृतिरन बवृतरतिव्यतिकरविजृम्भितव्याशेपः क्षेमधोकान्तश्चिरमेकान्ते कान्ततरकायकान्तिकांदिशीकलाधराम, रमणे चरणतले च रक्ताम्, प्रियसखोमण्डले जनावाण्डे च स्निग्याम्, ऊरुस्तम्भे परिजने चानुकलस्पर्शनाम्, सौभाग्ये श्रोणीबिम्बे च साभोगाम्, हृदयवृत्ती रोमराजौ च त्यक्त कौटिल्याम्, मध्ये प्रणयकलहकोपतनुनपाति च तनुतराम , सनाभी नाभिमण्डले च मग्नाम्, चित्ते कुचयुगलेऽयुन्नताम्, मनसि बाहुलतायां च मृद्वीम, वचसि ग्रोवायां च मिताम्, ६१७१. अथेति-अथानन्तरं पृथुनितम्यां स्थूलनितम्बा क्षेमश्रियं परिणीय विवाह्य प्रथम विधाह इब आद्यविवाह इव प्रथमाना वर्धमाना प्रीतियस्य तथाभूतः, परिणमन् अनिवारणो यो मदनमदवारणः १० कामकरी तेन वधिता धृतियस्थ, अनवकृतोऽसीमितो यो रतिव्यतिकरस्तस्मिन् चिजम्भितो व्याक्षेपो यस्य तथा. भूतश्च क्षेमश्रीकान्तो जीवंधरश्चिरं दीर्घकालपर्षन्तम् एकान्ते विजने स्थाने कान्ततरा अतिशयन रमणीया या कायकान्तिहदीप्तिस्तया कांदिशीदो मरतः माघरो निकास्यः साम्, बनणे पत्यो चरणतले च पादतले च रतां प्रीतियुक्त रकवर्णा च, प्रियसखीमपाइले प्रियाीवृन्दे जवाकाण्डे प्रस्तायुगे च स्निग्शं स्नेहयुक्ता मसणवर्णां च अरुस्तम्भे सस्थिरतम्भ परिजनं च कुटुम्बिजने च अनुकूयास्पशनाम् अनुगुणस्पर्श१५ गुणाम् अनुगुगदानां च, सौभाग्य पतिप्रेमणि श्रीणीबिम्बे च नितम्त्रमण्डले व साभोगां सविस्तराम्, हृदय. वृत्ती मनोवृत्ती रोमराजी च नाभरधीवर्तमानां शेमपती च रयक्तकौटिल्यां स्यक्तमायां त्यक्तवक्रतां च, सनामौ सहोदर नामिमण्डले च तुन्दिकूपे च मन्नां प्रात्यासकां गभीरा च, चित्ते चेतसि कुचयुगले स्तनद्वन्द्वेऽपि उन्नताम् उदाराम् उस्थितां च, मनसि हृदये बाहुलतायां च भुजबल्लयाँ च मृवीम् सदयां १७६. अथानन्तर प्रथम विवाह के समान जिनको प्रीति प्रसिद्धिको प्राप्त हो रही थी, २० विवाह के समय परिणमते हुए–तियग्दन्त प्रहार करते हुए अनिवार्य कामरूपी मदमाते हाथी से जिनका धैर्य बढ़ रहा था, और अनिश्चित रतिक्रियाके कारण जिनका व्याक्षेर उलझाव निरन्तर बढ़ता रहता था ऐसे क्षेमश्रीके पति जीवन्धरकुमार स्थूल नितम्बोंवाली उस क्षेमश्रीको एकान्तमें चिरकाल तक देखते रहते थे । वह क्षेमश्री पति और चरणतल दोनोंमें रक्त थी-अनुरागसे सहित थी ( पत्र में लाल वर्णसे सहित थी ) प्रिय सखियोंके समूह और २५ जङ्घाप्रदेश-दोनोंमें स्निग्ध-स्नेहसं सहित ( पश्न में चिकनी) थी। ऊरुरतम्भ और परिजन दोनों में अनुकूल स्पर्शना-अनुकूल स्पर्शसे सहित (पक्ष में अनुकूल दानसे युक्त) थी। सौभाग्य और नितम्बबिम्ब-दोनोंमें साभोग-विस्तारसे सहित थी। हृदय वृत्ति और रोमराजि दोनों में कौटिल्यका त्याग करनेवाली थी। अर्थात् उसकी हदय-वृत्ति कपट से रहित और रोमराजि सीधी थी। वह कमर तथा प्रथाय कलहसे उत्पन्न क्रोधाग्नि दोनों में अत्यन्त कृश थी १० अर्थात उसकी कमर अत्यन्त पतली थी और प्रणय कोपानि अत्यन्त सूक्ष्म थी। वह भाई और नाभि-मण्डल-दोनोंमें भुग्न-झुकी हुई थी। चित्त और स्तन युगल-दोनोंमें उन्नत थी अर्थात् उसका चित्त उदार था और स्तन युगल ऊँचा उठा हुआ था। मन और भुजलतादोनों में कोमल थी अर्थात् उसका मन अत्यन्त दयालु था और भुजलता अत्यन्त कोमल १. म० परिणय । २. म० भग्नाम् ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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