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________________ गचिन्तामणिः [१९ विजयायाः यथापुरमवनिपुरंदरमनुवतितम् ।। १६. अथ कतिपयदिवसापगमे परिणतशरकाण्डपाण्डुना कपोलयोः कान्तिमण्डलेन तुहिनमहसमिव बासवीर्यदिशा शंसति स्म गर्भे गर्भरूपस्य परिणामं हरिणाक्षी। काष्ठाङ्गारकाननदिधक्षया ज्वलिष्यत: सुतप्रतापानलस्य धूमकन्दल इ० कालिमा कुचचू चुकयोरदृश्यत । तनयमनसः प्रसाद इव बहिः प्रसृतश्चक्षुषोरलक्ष्यत धवलिमा। निखिलजनदोर्गत्यदुःखद्रुहि गतवति गर्भमभके विभ्रतीव भोतिमुदरादतिदूरं दरिद्रता प्राद्रवत । बुद्धवेव भाविनं स्नुषाभावमभवदवनी पदन्यासपराङ मुखी। गरिम्णा गर्भे समुपेयुषि दुर्धरतां क्लेशिताधरपल्लबाश्चामरपवना इव दौहृदइन्यमरः, शनैः शनैर्मन्दं मन्दं प्रसाद प्रसन्नतां स्वच्छतां च प्रत्यपद्यत प्रापन् । यथा पुरं पूर्ववत् अवनिपुरंदरं महीमहेन्द्रं नृपमिति यावत , अनुवतितुं सेवितुं प्रावर्तत च प्रवृत्ता चाभूत् ।। १६. अथेति-अथानन्तरं कतिपयदिवसानामपगमस्तस्मिन् कतिचिहिवसानन्तरं हरिणाक्षी मृगनेत्री विजया तुहिनमहसं चन्द्रमसं वासीदिशेव प्राचीव परिणतशरकाण वन परिपक्वतृणविशेषशारयावत् पाण्ड धवलं तेन कपोलयोगण्डयोः कान्तिमण्डलेन दीप्तिसमूहन गर्ने गर्भरूपस्य परिणाम परिपक्वता पूर्णतामिति यावत् शंसति स्म सूचयति स्म । काष्ठागारेनि-काष्टाङ्गार एवं काननं तस्य दिधक्षा दग्धुमिच्छा तया ज्वलिप्यतः सुतस्य प्रताप एवानलस्तस्य पुत्रप्रतापपावकस्य धूमकन्दल इव धूमश्रेणिरिष १५ कुचचूचुकयोः स्तनाग्रयोः कालिमा मेचकरवम् अदृश्यत । तनयेति-तनयमनसः पुत्रस्वान्तस्य बहिः'प्रसृतः प्रसाद इव नैमल्यमित्र चक्षुपोनयनयोः धवलिमा शौरल्यम् अलक्ष्यत । निखिलेति--निखिल. जनानां सकललोकानां यद् दोगत्यगुः दारिद्वदुः तस्मै दुस्पति तथाभूते अर्मके शिशौ गर्भ भ्रूणं गतवत्ति प्राप्तवति भीति भयं बिभ्रतीव दधसीव दरिद्रता निर्धनता पक्षे कृशता अतिदूरमतिविप्रकृष्टं प्रावत् पलाया। बुद्ध्वेति--भाचिनं भविष्यन्तं स्नुषाभायं वधूत्वं त्रु क्षेत्र ज्ञात्व अवनौ पृथियां - २० पदन्यासपराङ्मुखी चरणनिक्षेपविमुखा अमवत् गर्भमारेण पृथिव्यां 'बलितुमसमर्थाभूदिति भावः । गरिम्णेति-गमें भ्रूणे गरिम्णा गुरुत्वेन दुर्धरतां दुर्भरतां समुपेयुपि प्रासवति सति दौहृश्रियो गर्मबुझ गयी थी ऐसी विजया शरद् ऋतुकी सरसोके समान धीरे-धीरे प्रसन्नताको प्राप्त हो गयी और पहले के समान ही राजाके अनुकूल आचरण करने लगी। ६१९. तत्पश्चात् कुछ दिन व्यतीत होनेपर मृगलोचना विजया पके हुए तृणको २५ शाखाके समान सफ़ द गालोको कान्तिसे उदरके भीतर स्थित गर्भके परिपाकको उस तरह सूचित करने लगी जिस प्रकार कि पूर्वदिशा सफ़ेद कान्तिसे अपने भीतर स्थित चन्द्रमाको सूचित करती है। स्तनोंके अग्रभागमें कालिमा दिखाई देने लगी सो वह ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे चलकर प्रज्वलित होनेवाले पुत्र प्रतापरूप अग्निका धुआँ ही हो । नेत्रों में सफ़ेदी प्रकट हो गयी सो बह ऐसी दिखाई पड़ता था मानो पुत्रके मनकी प्रसन्नता ही ३० बाहर फैल गयी ह।। उसके उदरसे दरिद्रता--कृशता बहुत दूर भाग गयी सो ऐसी जान पड़ती थी मानो समस्त मनुष्योंके दारिद्रयसम्बन्धी दुःखसे द्रोह करनेवाले बालकके गर्भमें आनेपर भयको धारण करती हुई ही भाग गयी थी। 'पृथ्वी तो हमारी पुत्रवधू होनेवाली है' यह जानकर ही मानो वह पृथ्वीपर पैर रखनेसे विमुख हो गयी थी। गुरुताके कारण जब गर्भ दुर्धर अवस्थाको प्राप्त हो गया तर अधर पल्लवको क्लेशित करनेवाले श्वासो३५ च्छ्वास प्रतिसमय फैलने लगे। उसके वे श्वासोच्छ्वास ऐसे जान पड़ते थे मानो गर्भ १. क. अनुवर्तयितुम् । २. म. वासवीया दिशा ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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