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________________ ४१२ गधचिन्तामणि [ २८० जीवंधरस्यभगवन्ती, भवन्मखशतपत्रनिशामन मात्रेणेय जातसंसारप्रशमनोऽहमस्मीति प्रगणयामि । ततः पवित्रधर्मयानपात्रसमपणेन भवाब्धी विस्तृते दुस्तरतया सदा सीदन्तं मां प्रसीदताम्' इति । ६२८१. प्रथयस्पृहणीयतदोयप्रार्थनायसाने च धमिरा वर्पण कर्मयधिमा यन्त रमम्म मलमशेषतः क्षालयिष्यन्पूर्वमपाकुर्वन्निव बाह्यमा गन्तररदनज्योत्स्नारूपाभिनभिषिञ्चन्दन* तपसोस्तयोरग्रणोतिषग्रं रामनगुणरांपत्तां रत्नदीपिका मित्र प्रकटितपदार्थबारमार्या तमोपहां चाकठिन प्रभवत्वादिमामध्यतिशयानाम्, सुधामिव वसुबासलदुर्लभा रागनःसंभावनीयां चाक्षय वर्धितहर्षो वृद्धिंगतप्रमोदोऽयं राजपि विंधनः भगवती मापी प्रभावशालिनी भुनीन्द्री गवतामुखशतपत्रयोवदनारविन्दयोर्निशामनमाण र दर्शनमात्रेणव जातं संसारमसमनं भरभ्र नगशान्तियम्य सथाभूतोऽहमस्मीति प्रगणयामि जानामि । ततस्तस्मात्कारयान् पवित्रवर्ग एव यानपानं नौका तस्य १० समर्पणेन प्रदानेन विस्तृत विशाले भवाब्धी भवसागरे दुस्तातला दुःखेन तहुं शक्यो दुस्तरस्तस्य गावस्तता तया सदा सततं सीदन्तं दुःखीभवन्तं मां प्रति प्रसीदतां प्रसनो भवताम् इति । ६२८१ प्रश्नयेति-प्रथग्रेग विनयेन स्पृहणीया या तदीया प्रार्थना सस्या अवसान विराम च धर्मामृतवर्षेण धर्मसुधाश्या अस्य सजपः का पर्यायं कर्मामिधानम् आभ्यन्तरं मलं. यापम् अशेषतः समप्र. भावेन क्षालयिष्यन् प्रक्षालितं करिष्यन् पूर्व प्राश बाबम मलम् अपाबंलिव आभ्यनाररदनज्योत्स्वारूपानि १५ रन्तर्गतदन्तकौमुदापामिः अनिल अभिपिशन् अभिस्नपयन उनपत्रोः कटिनतपसौरतयोमहयो: 'भप्राणीः प्रधानो नातिव्य नातिव्याकुलं यथा स्वास्था समप्रगुणसम्पन्नां निखिल गुणयुगां रन दीपिकामिद प्रकटिनं पदार्शनां जीवाजीवादीनां घटपटादीनां च पारमयं यया तथाभूतां तमोर ध्वान्नापहां च मोहायहां च अकटिन प्रभावस्वात् कोमल कारणत्वात् इमामपि रहनदीपिकामपि अतिशयानाम् सनदीपिका कठिनप्रभवा दिव्यवाचकठिनामत्रा-दयामल पुनिमानससमुत्पति र प्रतिरेक, सुधामित्र पीयूरमिव . २० वसुधातलदुर्लभ पृथिवीतलदुर्लभा प्रभूतभाग्यमधिकजनसुलभस्वादन्यपां दुर्लभां सुमनःसंभावनीया देव. जिस प्रकार गायके देखने से भूखे बछड़ेका हर्ष बढ़ जाता है उसी प्रकार मुनिराजके वात्सल्यसे जिनका हर्ष बढ़ गया था ऐसे राजर्षि जीवन्धरस्वामीने प्रार्थना की कि 'भगवान् महर्षियो ! आप लोगोंके मुखकमलके दर्शन मात्रसे ही मेरा संसार शान्त हो गया है ऐसा मैं समझता हूँ। अब पवित्र धर्मरूपी जहाजको समर्पण कर इस विस्तृत संसाररूपी सागर में दुस्तर होने के २५ कारण सदासे दुःखी होते हुए मुझपर प्रसन्न हूजिए। ६२८१. विनयसे स्पृहणीय जीवन्धरस्वामीकी प्रार्थनाके बाद जो धर्मरूपी अमृनको वर्षासे इनके कमरूपी आभ्यन्तर मलको सम्पूर्ण रूपसे धो डालना चाहते थे और उसके पूर्व बाह्यमलको दूर करते हुए के समान जो उन्हें भीतरी दाँतों की कान्तिरूपी जल से सोच रहे थे ऐसे उग्र तपस्वी उन दोनों मुनियों में ज्येष्ठ मुनि, शान्तिपूर्वक समग्रगुणांसे सम्पन्न एवं भव्य जीवों३० को प्रसन्न करनेवाली मनोहर वाणी छोड़ने लगे-सान्त्वना देते हुए सुन्दर वचन कहने लगे। उनकी वह मनोहर वाणी यद्यपि रत्नोंकी दीपिका के समान थी क्योंकि जिस प्रकार रत्नोंकी दीपिका घट-पटादि पदाथोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकट करनी है उसी प्रकार उनकी वाणी भी जीव अजीत्र आदि पदार्थोके यथाथे स्वरूपको प्रकट करनेवाली थी और जिस प्रकार रत्नोंकी दीपिका तम-अन्धकारको दर करनेवाली होती है उसी प्रकार उनकी वाणी भीतम-अज्ञा३५ नान्धकारको नष्ट करनेवाली थी। तथापि रत्नोंकी दीपिका कठिन-कठोर रत्नोंसे उत्पन्न हुई थी -- १. क. मलशेषं ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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