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गद्यचिन्तामणिः
[ २१६ सुरमञ्जर्याः -
मंग
$ २१६. तत्तश्च विभाव्य क्षणादिव' यक्षोपदिष्टमनुमहिम्ना निजसौकुमार्यं निवार्यं विकच काश कुसुमस्तबकपरिभावुकेन पलितपाण्डुरेण केशकलापेन पटेनेव सितेना व गुण्ठितोत्तमाङ्गम, जराजलधितरङ्गानुकारिणोभिरायामिनीभिक्लीभिः स्थपुटितललाटफलकम् अलिकतट-ल स्फुरदलघु वलिभारनुन्नाभ्यामिव नम्राभ्यां भ्रूलताभ्यां तिरोधीयमाननयनम्, उन्मिषितदूषिकाभ्ण५ मृद्भूत नीलपीतपाटलसिराजालजटिलाभ्यामनुपलक्ष्य माणपक्ष्मरोमराजिभ्यां हिमानीहत पुण्डरीकविच्छायाभ्यामोक्षणाभ्यामुपलक्ष्यमाणम्, आनाभिलम्बितेन जरावल्ली फुल्लमञ्जरीनिभेन कूकलापेन प्रच्छादितवक्षसम्, अक्षीणकासकाष्ठा कर्णेजपेन घर्घराघोषेण मुखरितकण्ठमूलम् अतिन प्रपूर्वकाय
$ २१६. तवचेति-- ततश्च तदनन्तरं च क्षणादिव अल्पावकालादिव विमाच्य विचार्य यक्षोपदिष्टश्वासौ मनुश्चेति यक्षापदिष्टमनुः सुदर्शनयक्षेोपदिश्रमन्त्रस्तस्य महिम्ना माहात्म्येन निजसौकुमार्य स्वस्य १० सुकुमारतां निवार्य दूरीकृत्य विकचानां प्रफुल्लानां काशकुसुमानां काशपुष्पाणां यः स्तबको गुच्छक्रस्तस्य परिभायुकेन तिरस्कारकेण, पलितं जरसा शौक्ल्यं तेन पाण्डुरेण धवलेन केशकलापेन कचसमूहेन सितेन शुक्लेन पटेन वस्त्रेणेव भवगुण्ठितं समावृतमुत्तमाङ्गं शिरो यस्मिंस्तम्, जरेव जलधिर्जराजलधिर्वार्धक्यवारिधिस्तस्य तरङ्गाणां लहरीणामनुकारिण्यस्वाभिः आयामिनीभिदीर्घाभिः बलीभिस्त्वक्संकोचज नितरेखाभिः स्पुटितं नतोन्नतं ललाटफर्क भालवर्ट यस्मिंस्तम्, अलिकतटे निटिलतटे स्फुरता प्रकटीमवता अलघुव लि१५ भारेण दीर्घत्वक संकोचरेखामारेण नुन्नाभ्यामिव प्रेरिताभ्यामिव नम्राभ्यां नताभ्यां भ्रूलताभ्यां भ्रकुटिवल्लरी
भ्याम् तिरोधीयमाने अन्तर्धीयमाने नयने यस्मितम्, उन्मिषितदृषिकाभ्यां प्रकटितमलाभ्याम् उद्भूतेन प्रकरितेन नीलपीतपाइले सिराजालेन नाडीनिचयेन जटिलाभ्यां व्याप्ताभ्याम्, अनुपलक्ष्यमाणा अदृश्यमाना पक्ष्मरीमराजः पक्ष्मलोमपतिर्ययोस्त्राभ्याम् महद्धिमं हिमानी तथा हतं साडितं यत्पुण्डरीकं कमले तद्वद् विच्छायाभ्यां कान्तिरहिताभ्याम् ईक्षणाभ्यां नयनाभ्याम् उपलक्ष्यमाणं दृश्यमानम्, नाभि २० तुन्दिमभिध्याय लम्बितं तेन आनाभिलम्बितेन, जरैव वल्ली जरावल्ली वार्धक्यवल्करी तस्याः फुल्लमञ्जर्या निमः सदृशस्तेन कूचकलापेन हनुरोमसमूहेन प्रच्छादितमावृतं यक्षो यस्मिंस्तम्, अक्षीणो वृद्धिंगतो यः कालः 'खांसी' इति प्रसिद्धो रोगस्तस्य काष्ठा चरमसीमा तस्याः कर्णेजयः सूचकस्तेन घर्घराघोपेण घर्धरशब्देन
२१६. तदनन्तर विचार कर क्षण-भर हो में उन्होंने सुदर्शन यक्ष के द्वारा उपदिष्ट मन्त्रकी महिमा से अपनी सुकुमारताको दूर कर मृत मनुष्य के समान वह वैष धारण कर लिया कि २५ जिसमें खिले हुए काशके फूलोंके गुच्छोंको तिरस्कृत करनेवाले सफेद बालोंके समूह से सिर ऐसा जान पड़ता था मानो सफेद वस्त्रसे ही आच्छादित हो । वृद्धावस्थारूपी समुद्रकी तरंगोंका अनुकरण करनेवाली लम्बी-लम्बी सिकुड़नोंसे जिसमें ललाट तट व्याप्त हो रहा था । ललाट में प्रकट होनेवाली बहुत भारी सिकुड़नोंके भारसे प्रेरित हुई के समान नीचे की ओर झुकी हुई भ्रुकुटिरूपी लताओंसे जिसमें नेत्र आच्छादित हो रहे थे। जिनमें कीचड़ निकल रहा ३० था, जो प्रकट हुई नीली पोलो और कुछ-कुछ लाल नसके समूह से व्याप्त थीं, जिनके पलकों की बिनियाँ दिखाई नहीं पड़ती थीं, और जिनकी कान्ति बर्फ से पीड़ित सफेद कमलोंके समान थी ऐसे नेत्रोंसे जो सहित था । नाभितक लटकनेवाले एवं वृद्धावस्थारूपी लता के फूलोंकी मंजरीके समान लम्बी दाढ़ीसे जिसमें वक्षःस्थल ढक गया था। कभी नष्ट नहीं होनेवाली खाँसीको चरम सीमाके कान में मन्त्र फुकनेवालेके समान घर्धर शब्दसे जिसमें कण्ठका मूल
१. म० क्षणादेव १ २ मन्त्रमहिम्ना, इति टि० । ३. म० पाण्डरेण ।