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- वृत्तान्तः ]
चतुर्थो लम्भः पेत इब 'पादैः, उद्दोयमानविहङ्गसंगताङ्गतया मक्षु जनजिघृक्षया पक्षीकृतपक्ष इव लक्ष्यमाणः, क्षितिधर इव लब्धानिः , अधःकृताधोरणनिवारण: कोऽपि मदवारणः ।।
$ १३०. ततस्तत्मनिधिना निधिलाभेन नोचपरिज्ञान इव परिजने परिक्षीणे, सरभसमुत्सृज्य चतुरन्तयानं दिगन्तं यहत्सु बाहकेषु, सा दरिद्रमध्या दारिद्रयादिव सहन रविगमादेकाकिनो तस्थौ । तथा तिष्ठन्तोमिमां दृष्ट्वा गुणमालां प्रियंवदेति तस्याः पिग यग्यो, 'पानसमामिमां मत्प्राणत्राणाय विहाय कथमपनपा प्रयामि । प्रयान्तु ममासवः प्रागेतन्मृतिप्रेक्षणात् इति पृष्ठोकृय तां
ते च न शानाश्त्यामर्थक्शाया अधीमाकमिशवस्तषां प्रतन याहुल्यन कलितं युनं गात्रं यस्य तस्य भावस्तत्ता तया स्वयं स्वत: अध्यगरूर्वगामिभिः पादश्चरण: अध्यपेत इन सहिन इव तन करिणाश्रोमस्तका उपरि पादा बहवी बालकाः शुषडयोत्याप्योपरिश्ता तेन स अभ्यंग मिमिरधिभिः सहित इत्र यभाविति मावः; उद्दयमानरुत्पतद्भिर्थिहङ्गैः पक्षिभिः संगतमङ्गं यस्य तस्य भावस्तया, महक्षु शीघ्रं जन- १० जिवृक्षया जनान् गृहीतुमिच्छ-या पक्षीकृताः स्वीकृताः पक्षा गरुती बन तथाभूत इब लक्ष्यमाणो दृश्यमानः, रब्धानिः प्राप्तपादः क्षितिधर इव पर्वत इव, अधःकृतानि तिरस्कृतान्याधारणस्य नियन्तुनिवारणानि येन तथाभूतः।
१०. तन इति-ततस्तदनन्तरम् तत्संनिःधना गजेन्द्र संनिधानेन निधिलाभन संपत्तिमाप्त्या नीचपरिज्ञान इवाधमजन विवेक इव परिजने परिकरजने परिक्षीणे विद्रुते सति सरभसं सवेगं चतुरन्यानं १५ शिविकामुत्सृज्य त्यक्त्वा वाहकै दिगन्त काष्ठान्तं बहसु गच्छःसु सत्सु, दरिदं कृशं मध्यमवलग्नं यस्यास्तधाभूता सा गुणमाला दारिद्रयादिय निर्धनस्वादव सहचविगमात सहायिजनविदवणात् एका. किनी असहाया तस्य । तथेति-तथा पूनिका कारण तिष्ठन्तीं विद्यमानाम् इमां गुणमालां दृष्ट्वा प्रियंवदतिनामधेया तस्याः प्रियसी प्रियाली 'मम प्राणा मत्प्राणास्तेषां नाणाय सदसुरक्षणाय प्राणसमा प्राणसदृशीम् इमां गुणमालां विहाय अपनपा निलं जा सती कथं प्रयामि गच्छामि। एतस्या मृतेः प्रेक्षणमवलोकनं २०
यमराज ही हो । उस हाथी का शरीर जिनका मस्तक नीचेकी ओर तथा पैर ऊपर की ओर थे ऐसे सैकड़ों वञ्चोंसे सहित था इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वयं ऊपरकी ओर जानेवाले पैरोंसे सहित था । उसके शरीरपर कुछ उड़ते हुए पक्षी भी आ बैठे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो शीघ्र ही मनुष्योंको पकड़ने के लिए उसने पंख ही धारण कर रखे हों। वह पैरोको प्राप्त करनेवाले पर्वतके समान जान पड़ता था तथा उसने महावतको नीचे २५ गिरा दिया था।
६१६०. तदनन्तर उस हाथी के पास आते ही गुणमालाके परिजन उस तरह नष्ट हो गये-इधर-उधर भाग गये जिस तरह कि निधि मिलनेसे नीच मनुष्यका ज्ञान नष्ट हो जाता है और पालकीमें लगे कहार भी पालकी छोड़ शीघ्र ही दिशाओंके अन्त तक-बहुत दूर भाग गये। जिस प्रकार दरिद्रताके कारण सब मित्र बिछुड़ जाते हैं और मनुष्य अकेला रह जाता ३० है उसी प्रकार पतली कमरको धारण करनेवाली गुणमाला भी उस समय सव साथियोंके चले जानेसे अकेली खड़ी रह गयी । गुणमालाकी एक प्रियंवदा नामकी सखी थी। वह गुणमालाको उस तरह अकेली खड़ी देख विचार करने लगी कि इस प्राणसदा सखीको छोड़ अपने प्राणों की रक्षाके लिए निर्लज्ज हो मैं कैसे भाग जाऊँ ? इसकी मृत्यु देखने के पहले ही मेरे
१. क. ग० ततस्तत्मनिधानात।
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