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________________ ११० गद्यचिन्तामणिः [२७६ जीवंधरस्य - ६२७६. 'यदध्रिपद्मप्रणतो प्रवीणा न कुर्वते जातु नति परेषु । अपारभूमानमनन्यतुल्यं श्रीवर्धमानं शिरसा नमामि ॥ २७७. यदीयपादाम्बुरुहस्तवेन क्षणावधि वा गमयन्ति कालम् । न ते परस्तोत्ररा इति त्वां श्रीवर्धमान स्तुतिभिर्भजामि || ६२७८. आराधयन्ति क्षणमादरेण यदविपक्रेरहमातभावाः । पराङ्मुखास्ते परसत्क्रियायामित्यर्चनीयं जिनमर्चयामि ।।' इति । ६२७९. तावता तत्र तत्रभवन्तो संनिहिती हितकार्यकरणायेव कायभृतां कायवद्धौ शुद्धपाणी हसा मुरुल यन् चद्धाबलिवेन कुइमलयन् भगवन्तममातिहार्यविभव विभाजिनं परमेश्वर जिनेन्द्रम्१०६२७६. यदीति-यस्य अघ्रिपद्मयोश्चरणकमल योः प्रगती नमस्कार प्रवीणा दक्षा जा परेषु हरिहरदिपु नति नमस्कार जानु कदाचिन् न कुर्वते न विदधति, अगरभूमानमनन्तमहिमानम् न विद्यतेऽन्यस्तुल्यो यस्य समनुपमम् तं श्रीवर्धमान महाधीर शिरसा मूर्ना नमामि वन्दे । २७. यदीयेति-वा अथवा, ये जना यदीयपदाम्बुरुह योर्यच्चरणकमलयोः स्तवन स्तोत्रेण क्षणावधि अणपर्यन्तमपि कालं गमयन्ति व्यता कुवन्ति वे जनाः परेषामन्येषां देवानां स्तोत्रे स्तवने परा १५ उद्यता न भवन्तीति शेषः इति हेतोः श्रिया लक्षाया वर्धत इति श्रीवर्धमान स्तधाभूतं स्वां जिनेन्द्र मनुतिभिः सबनैः मजामि संवे। २८. आराधयन्तीति-आको तीतो मानभूना लो ये जना: भागमपि आदरेण भक्त्या यघ्रिपकरुह यादवद्मम् आराधयन्ति सेवन्ते ते जनाः परस स्क्रयायामन्य देवसत्कारे पराङ्मुखा विमुखा भवन्तीति शेषः । इति हेतोः अर्चनीयं पूज्यं जिनम् अर्चयामि पूजयामि । सर्वोपजातिवृत्तम् । २० इति । --- - ---- --- . .. ---- ६२७१. तातेति-तावता तावकालेन भयं राजा भवभ्रमणभीता जीवंधरः तत्र जिनभव ने त्वमवन्तौ पूज्यौ संनिहितो निकटस्थौ कायभृतां प्राणिनां हितकार्य करणायेव हितकार्यविधानायेव काय बद्धी शुद्धिको बढ़ा रहे थे, दुष्कर्माको दूर कर रहे थे, शरीरको रोमांचित कर रहे थे, नेत्रोंसे हाथ झरा रहे थे, वाणीको गद्गद कर रहे थे और दोनों हाथोंको जोड़कर कमल की बाड़ीके आकार २५ कर रहे थे । वे कह रहे थे कि ६२७६. 'जिन चरणकमलोंकी स्तुतिमें प्रवीण मनुष्य कभी दूसरोंको नमस्कार नहीं करते, जो अपार महिमाके धारक है तथा जो अनुपम हैं उन श्रीवर्धमानस्वामीको मैं शिरसे नमस्कार करता हूँ।' ६२७७. जिनके चरणकमलों के स्तबनसे जो क्षण प्रमाण काल व्यतीत करते हैं वे फिर ३० कभी किमो दूसरेके स्तवन करनेमें तत्पर नहीं होते इसलिए मैं आप श्रीवर्धमानस्वामीकी स्तुतियोंसे भक्ति करता हूँ। ६२७:. जो उत्तम भावों को प्राप्त कर क्षण-भर भी आदरपूर्वक जिनके चरणकमलोंकी आराधना करते हैं वे दूसरोंके सत्कार से पराङ्मुख हो जाते हैं इसलिए मैं पूजनीय श्री वर्धमान जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ। २७९. उसी समय वहाँ समागमें विद्यमान चारण ऋद्धिके धारक दो मुनिराजोंको राजा जीवन्धरने देखा। वे मुनिराज अतिशय पूजनीय थे, भव्य जीवों का हित करने के लिए
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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