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________________ १५ दात गद्यचिन्तामणिः [ ३ राजपुयां - ढक्काझल्लरीझंकारकृताहंकारैः अभङ्गरकरणबन्धबन्धुरलास्यलासिविलासिनीमणिभूषणशिजितमजुलै: किसलयितभरतमार्गमनोहारिसंगीतसंगतैः संभृतमहोदधिमथन घोषमत्सरैः जिनमहोत्सवतुमुल रवैः परिभूत इब नावकण्यते कदापि कल्याणेतरपिशुनः शब्दः यत्र च स्त्रीणामधरपल्लवेष्व धरता कुचतटेषु कठिनता कुन्तलेषु कुटिलता मध्येषु दरिद्रता कटाक्षेषु कातरता विनयातिक्रमो ५ मानग्रहेषु निग्रहः प्रणयकलहेषु प्रार्थनाप्रणाम: पञ्चबाणलीलासु वञ्चनावतारः परमभूत् । हरैः। आरटितेति---आरटिताः कृतशब्दा या ढकाझलय धान कघण्टास्तासां झंकारेण कृतोऽहंकारी येषु तः। अभङ्गरति-अभङ्गरा दीघकालस्थायिनो ये करणवन्धा नृत्यासनविशेषास्तैबन्धुरं मनोहर यहास्यं नृत्य तन लसन्तीत्येवंशीला या विलासिन्यो रूपाजीवास्तासां यानि मणिभूषमानि तेषां शिक्षितनशब्दन मञ्जला मनांगर ! किरालगितेति--निसलयितन मटिंगतेन भरतमागण नाट्येन मनोहारिचताहरं यासंगीतं तन संगतैः सहितः । संभृतेति-संभृतो तो महोदधिमथनस्य महासागरमथनस्य घोपेण मत्सरो यस्तैः । यत्र चेति-यत्र च नगर्याम् अधरता दशनच्छदता परं मान स्त्रीणाम् अधरपलबेषु नीचरोष्टकिसलयेषु अभृत् , अन्यन्नाधरता नीचता नाभूत । कठिनता कठिनस्पर्शवत्वं स्त्रीणां कुचतरंयु सनतटेषु परमभूत , अन्य व कठिनता निर्दयता नाभूत् । कुटिलता मङ्गुरत्वं स्त्रीणां कुन्तलेषु केशेषु परमभूत, अन्यत्र कुटिलता मायाजनितवक्रता नाभूत् । दरिद्रता कृशता स्त्रीणां मध्ययु कटिप्रदेशेषु परमभूत्, भन्यत्र दरिलता निर्धनता नाभूत् । कातरता चपलता स्त्रीणां कटाक्षेप्वपाङ्गपु परमभूत, अन्यत्र कातरता भीरता नाभूत् । बिनयातिक्रमो विनयोलङ्घनं स्त्रीणां रतेषु संभोगेषु परमभूत्, अन्यत्र विनयातिक्रम उद्दण्डाचरणं नाभून् । निग्रही निराकरणं स्त्रीणां मानग्रहेषु प्रणयकोपेपु परमभून् , अन्यत्र निग्रहो दमनं नाभूत् । प्रार्थनाप्रणामः प्रार्थनार्थ रतियाचनार्थ प्रणाम इति प्रार्थनाप्रणामः स्त्रीणां प्रणयकलहेपु कृत्रिमकोपेषु परम भूत, अन्यत्र प्रार्थनाप्रणामो याचनादन्यं नाभूत् । वञ्चनावतारो दम्भाश्रयणं स्त्रीणां पञ्चबाणलीलास २० कामकेलिषु परमभूत , अन्यत्र वञ्चनावतारः प्रतारणवृत्याश्रयो माभूत् । परिसंख्यालंकारः। हुए तबले और झाँझोंकी झंकारसे जिनका गर्व बढ़ रहा था, जल्दी-जल्दी नष्ट नहीं होनेवाली नृत्य मुद्राऑके बन्धसे मनोहर नृत्योंसे सुशोभित नृत्यकारिणियोंके मणिमय आभूषणोंको झनकारसे जो मनोहर थे, बढ़ती हुई नृत्यकलासे मनोहर संगीतसे संगत थे और जो महा- ।। सागरके मथनकालीन शब्द के साथ मात्सर्यभाव धारण किये हुए थे ऐसे जिनेन्द्रदेवके महो२५ त्सवोंमें होनेवाले उन्ननादसे तिरस्कृत हुए के समान जिस राजधानीमें कभी अकल्याणको सूचित करनेवाला शब्द सुनाई ही नहीं पड़ता था। एव जिस नगरीमें अधरता - नीचेका ओठपना स्त्रियोंके अधरपल्लवों में ही था अन्य मनुष्योंमें अधरता - नीचता नहीं थी। कठिननास्पर्श सम्बन्धी कठोरता स्त्रियोंके स्तनों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में कठिनता - ऋरता नहीं थी। कुटिलता - बाँकरना स्त्रियोंके केशोंमें ही था वहाँ के मनुष्यों में कुदिलता - माया नहीं थी। ३० दरिद्रता - पतलापन स्त्रियोंकी कमर में ही था वहाँ के मनुष्योंमें दरिद्रता - निर्धनता नहीं थी। कातरता - चंचलता स्त्रियों के कटाक्षों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में कातरता - भीरता नहीं थी। विनया तिक्रम - विनयका उल्लंघन स्त्रियोंके सम्भोगमें ही होता था अन्य मनुष्यों में नहीं था। निग्रह - बन्धन स्त्रियों की मानदशामें ही होता था अन्य मनुष्योंका निग्रह - तिरस्कार नहीं होना था। प्रार्थना सम्बन्धी प्रणाम, स्त्रियोंकी प्रणय कलह में ही होता था अन्य मनुष्यों में ३५ याचना सम्बन्धी प्रणाम नहीं होता था और वंचनाका अवतरण - छलका अवतरण स्त्रियोंकी काम-क्रीड़ामें ही होता था अन्य मनुष्योंमें वंचना-धोखादेहीका अवतरण नहीं होता था । १. ० म० मिगुनशब्दः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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