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________________ यद्यचिन्तामणिः [ २७० जीवंधरस्यन्दिमधुबिन्दुसंदोहचन्द्रकिताममलस्फटिकशिलाघटितसोपानां प्लवमानराजहंसफेनिलतरङ्गां कूजत्कारण्डवमिथुनाधिष्ठितकूलकेतकीकुसुमधूलिधूसरपुलिनामनिभृतमीनाहतोत्पलगर्भप्रतिवद्धषट्पदझंकृतमुखरामुपरितटोद्यानवाटिकागूढां क्रीडासरसीं समदशकुन्तकुल कृजितैरिवाभिहितालोकशब्दः समवगाहमानमा नीजिकरकारफालारमारगामिलहरीप्रवाहेणेब प्रतिगृह्यमाणः समवगाह्य वन५ करीव करिणीभिः करभोरभिरुपलक्षितः क्षालिताङ्गरागसंपर्व सवुकुमसलिलं सादुकूलादलेपस्पष्ट दृश्योषिदवयवाकृष्यमाणात्मलोचनं सुलोचनालोवनकुचसारूप्यसाक्षाल्लक्षणसंभावनीयविकचमुकुल. रसमूहानिध्यन्दिनी ये मथुबिन्दवो मकरन्दशीकरास्तेषां संदोहेन चन्द्रकितां व्याप्ताम, अमलामिनिर्मलाभिः स्फटिकशिलाभिः श्वेताभदृषद्भिः घटितानि रचितानि सोपानानि श्रेणयो यस्यास्ताम , प्लवमानस्तरद्धी राजहंस: फेनिलाः सफेना तरङ्गा मङ्गा यस्यास्ताम, कूजन शब्दायमानं यकारण्डव मिथुन पक्षिविशेषयुगलं १० तेनाधिष्ठिता युक्ता या कूल केतकी तटकेतकी तस्याः कुसुमधूल्या पुष्पपरागेण धूसरः पुलिनः सैकतं यस्यास्ताम् 'तोयोस्थितं तत्पुलिनं सैकतं सिकतामयम्' इत्यमरः, अनिभृताश्चपला ये मीना मत्स्यास्त राहतानां ताडितानामुत्पलानां नीलकमलान गर्ने मध्ये बद्धा सुद्धा ये षट्पदा भ्रमरास्तेषां प्रकृतन गुन्जनरवेण मुखर शब्दायमानाम्, उपरि उपरिस्थितामिः तटोयान वाटिकामिः तीरोपवनवनीमिदा तिरोहिता ताम् क्रीडासरसी केकिकासारम् 'कासारः सरसी सरः' इत्यमरः, सनदाः सदा ये शकुन्ताः खगास्तेषां कुलस्य कूजितरव्यक१५ पक्षिध्वनिभिः अभिहित: समुच्चरित आलोकशब्दो जयजयशब्दो यस्य तथाभूतः, समवगाहमानानां प्रविशन्तीना मानिनीनां नारीणां निकरस्य समूहस्य करास्फालनरयेण हस्तास्फालनवेगेन तोरगामिन्यस्तटोपसगियो या लहयस्तरङ्गास्तासां प्रवाहण प्रतिगृह्यमाण इव अग्रमागस्य सस्क्रियमाण इव समवगाहा प्रविश्य करिणीभिरुपल सितो वनकरीव बनगज इव करभोरुभिः सुन्दरीभिरुपलक्षितो युक्तः सन् मालितो धौतो योऽङ्गरागो विलेपनं तस्य संपर्केण संसगण सकुकुम सकाश्मीर सलिलं यस्मिन् कर्मणि २० तद्यथा स्यात्तथा, सास्य जलक्लिनस्थ दुकूलस्य क्षौमस्याइलेषेण स्पष्टं यथा स्यात्तथा दृष्टा विलोकिता ये योषिता स्त्रीणाम् अवयवाः पीनस्तननितम्पादयस्तैराकृष्यमाणे हठातीयमाने आत्मलोचने यस्मिन् कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा, सुलोचनानां वरकमानां लोचन कुचस्य नयनवशोजस्य यत् सारूप्यं सादृश्यं तस्य -. - - -.- - - कमल-समूहसे झरनेवाली मधुबिन्दुओंके समूहसे चन्द्रकित थी-चन्द्रकाकार छपकोंसे युक्त थी, निमल स्फटिककी शिलाओंसे जिसकी सीढ़ियाँ बनी हुई थी, जिसकी लहरें तैरते हुए राज२५ हसासे फेन युक्त हो रही थीं, शब्द करनेवाले कारण्डव पक्षियोंके युगलसे अधिष्ठिन तटवर्ती केतकीके फूलोंकी परागसे जिसका तट मटमैला हो रहा था, चपलतापूर्वक मछलियोंके द्वारा ताडित नील कमलके भीतर रुके हुए भ्रमरोंकी झंकारसे जो शायमान हो रही थी तथा जो ऊपर तटपर स्थित बाग-बगियोंसे छिपी हुई थी ऐसी क्रीडा-सरसीमें प्रवेश कर उन्होंने अत्य धिक क्रीड़ा की। क्रीडा-सरसा में प्रवेश करते समय जो वहाँ मदोन्मत्त पक्षियोंके समूह शब्द ३० कर रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो जीवन्धर स्वामीका जय-जय शब्द ही उच्चरित हो रहा था। प्रवेश करनेवाले स्त्रीसमूह के हाथोंके आस्फालनसे उत्पन्न वेगसे तटपर जो तरंगोंका प्रवाह आ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो तरंगोंका वह प्रवाह उनकी अगवानो ही कर रहा हो । जिस प्रकार जंगलका हाथी जंगलकी हधिनियों के साथ किसी सरोवरमें प्रवेश करता है उसी प्रकार उन्होंने भी करभ-कलाईसे लेकर झिंगुरी तक हाथकी ३१ बाह्य कोरके समान सुन्दर जाँघोंवाली स्त्रियों के साथ उस क्रीड़ा-सरसी में प्रवेश किया। क्रोडा के समय धुले हुए अंगरागके सम्पर्क से उस सरसीका पानी केशरसे सहित जैसा हो गया था। गीले वस्त्र के चिपक जाने के कारण स्पष्ट रूपसे दिखाई देनेवाले स्त्रियोंके अवयवोंसे उनके
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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