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________________ - जलक्रीडावर्णनम् ] एकादशो कम्मः नलिनमलकानविगलदम्बुबिन्दुसंदोहसंदेहकरहारमुक्तमुक्तानिकर करविलुलितसलिलप्लवमानबिसवलयरचितचन्द्रशकलशङ्क जडसंनिधिसंजातवाग्यतवृत्तिकताविभाव्यमानसुजनकृत्यरशनाकलाप दतिमुखसिच्यमानकुङ्कुंमपङ्कसंपर्कसंभाव्यमानसिन्दुरितकुम्भिकुम्भसाम्यकुचकुम्भं च भृशमक्रीडत् । २७१. क्रोडावसाने च बलवदनिलचलकिसलयसमुल्लासिवेल्लल्लतालास्यलालितेऽभिनवपरागपटलस्विन्न'नागमञ्जुमरीजालजल्पाकमधुकरनिकरझंकारमुख रे गाङ्गजल इव पृथुल- ५ साक्षात् लक्षणेन दर्शनेन संभावनीयानि सत्करणीयानि विकचमुकुलनलिनानि प्रफुल्ल कुदमककमलानि यस्मिन् कर्मगि यथा स्थात्रया, अलकाग्रेभ्यः कुन्तलाग्रभागभ्यो विगलन्तो येऽम्युबिन्दुसंदोहा जलबिन्दुसमूहास्तेषां संदेह करा ये हारा मौक्तिकयट्यस्तेभ्यो मुनाः पतिता मुनानिकरा मुक्ताफलसमूहा यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्नया, करैहस्तैविलुलितमालोडिन यासलिलं जलं तस्मिन् प्लवमानस्तरद्भिविसवलम्रपालकटकै रचिता का जनशकला माशिवानी जा सस्मिन् नार्मणि तद् यथा स्यात्तथा, जडस्य मुखस्व पक्षे १० जलस्य संनिधौ समीपे संजाता समुत्पना या वाग्मतवृत्तिकता मौन वृत्तिस्तया विमान्यमानं प्रतीयमानं सुजन कृत्यं साधुकस्यं यस्य तथाभूतो रशनाकलापो मंखलाकलापो यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्याप्तथा, जडसंनिशने यथा सुजनो मौनं श्रयते तथा जलसंनिवाने मेखला कलापोऽपि मौनं श्रितवान् एतलक्षणेन तस्य सुजनकृत्यत्वं प्रतीयत इति मायः, इतिमुखेन जलयन्त्रमुग्न सिच्यमानो यः कुङ्कुमपङ्कः काश्मीरदवस्तस्य संपण संभाव्यमानं समनुमीयमानं सिन्दुरितकुम्भिकुम्भसाम्यं सिन्दूरयुकगगण्डसादृश्यं १५ येषां तथाभूताः कुव कुमाः स्तनकशा यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा व भृशमत्यन्तम् भनीइन् । २७१, क्रीडासान इति-क्रीडावसाने च जललिबिरामं च बळवता प्रचण्डेन भनिन पवनेन चल किसलयैः चञ्चलपल्लवैः समुल्लासिन्यो विशोभिन्यो या वेल्ललता: चलदल्लयस्तासां लास्येन नृत्येन लालिते शोभिते, अभिनवपरागपटलेन नूतनरजोराशिना स्विम्ना क्लिन्ना याः पुनागमनुमजयः नागकेसरमनोहरमजस्तासां जालेन समूहेन जल्पाका गुञ्जनरवं कुर्वाणा ये मधुकरनिकरा भ्रमरसमूहा- २० लोचन आकर्षित हो रहे थे। स्त्रियांके नेत्र और स्तनोंकी सदृशताका साक्षात् दर्शन होनेसे उसमें खिले तथा कुड़मलित कमलोंके प्रति आदर प्रकट किया जा रहा था। केशोंके अप्रभागसे झरनेवाली जल-बिन्दुओंके समूहका सन्देह उत्पन्न करनेवाले हारसे मोतियोंका समूह उस समय टूट-टूटकर नीचे गिर रहा था। हाथके द्वारा विलोये हुए पानी में तैरनेवाले मृणालक चूडासे उसमें चन्द्रमाके स्वण्डकी शंका उत्पन्न हो रही थी। जड-जल ( पक्ष में मूर्ख जन ) के २५ संनिधानसे उत्पन्न मौन वृत्ति के कारण उस समय मेखला-समूह की सज्जनता प्रकट हो रही थी। भावार्थ-जिम प्रकार मूर्ख जनके समीप सज्जन मनुष्य मौन रह जाते हैं उसी प्रकार जलके सम्पर्क से मेखलाएँ मौन रह गयी धों-उनका रुनझुन शब्द बन्द हो गया था। तथा स्त्रियों के स्तनोंपर लगा हुआ केशरका पंक महाकके अग्रभागसे सींचा जा रहा था । उससे उनके स्तनकलशों की तुलना सिन्दूरसे युक्त हाथियोंके गण्डस्थल के साथ प्रकट हो रही थी। ३० ६२७१. जलक्रीड़ाके बाद जो तीत्र वायुसे हिलते हुए पल्लवोंसे सुशोभित थिरकती हुई लताओंके नृत्यसे सुन्दर था, नूतन परागकी पटलसे युक्त पुंनाग वृक्षों की सुन्दर मंजरियोंके समूहपर गुंजार करनेवाले मर-समूहकी झंकारसे शब्दायमान था, जो गंगाके जलके १. म. कुङ्कम गम्पर्क। २. गाम्भीयंजल इव ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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