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________________ -विरहवृत्तान्त: ] २५१ प्रबुध्य दग्धहृदया निभृतेतरपदप्रसृतयो विसृमरकवभारतिमिरकवचितवियतः 'किं किम् ?' इति यामिनीनिभा यामिकयुवतयः समायासिषुः । अद्राक्षुश्च तां भग्नोषघ्नपादपां लतामिव पांसुलोद्गपत्रभङ्गां धात्रीतलशायिनीं शमयितुमिव शोकानलं नयनजलप्रवाहे प्लवमानामुद्दामदारिद्रयादप्युवेजनीयां वापसंपदिपि शोच्यां निर्घृणत्वादपि निन्दनीयां परदारपरिग्रहादपि निग्राह्यां नास्तित्र्यादप्यनास्थेबागवस्थामारूढां पद्माम् । $ १६६. ततच तास्वपि तस्याः परिदेवननिदानं परिज्ञाय परिवासपरात्री नासु परिजनमुखादेतदुपयोमुखी समागत्य तज्जननी जनितोद्वेगा निजोत्सङ्गे वत्सामारोप्य तदात्वोकुतियावत् हृदयं यासां हायवेनि - तावता तावकान प्रयागुता निवेतरा चपलतरा पद्मृतिश्वरणसंचारो यासां ताः, विमरः प्रसरणशीको यः कचभारः केशसमूहः स एव तिमिरं ध्वान्तं तेन कथितं व्याप्तं विषद्रव्योम याभिस्ताः किं किम्' इति बुवाणा १० इति शेषः, यामिनीनिमा रजनीतुल्या यामिकयुवतयः प्रहरिकपुरन्द्रयः समायासिपुः समागतवत्यः । अद्राक्षुश्चेति--अद्राक्षुत्र विलोकयामासु त पद्म भन्नः खण्डित उपनपादप आश्रयतस्यस्यास्ताम् अतएव पांसु धूलिधूसर उद्गमपत्रभङ्गः पुष्पपत्रावलिः पक्षे कुङ्कुमादिनिर्मितपुष्पपत्राकाररचना यस्यास्तधाभूतां लतामिव धात्रीनलशायिनी भूतलपतिताम्, शोक एवानलस्तं विषादवह्नि शमयितुमिव शान्तं कर्तुमिवापूरे पवमान मित्र तरन्तीमित्र उदामदारिद्र्यात्कट निर्धनत्वादपि १५ उजनीयाम् उद्वेगकारिणीम्, संस्कदिति निदासंगादपि शोच्यां शोचनीयां निर्घृणत्वाददि निद्र्यस्वादिनिन्दनीयां गर्हणीयां परस्य द्वाराः परदारास्तेषां परिमहादपि परपुरन्ध्रीपरिग्रहादविनिग्राह्मां निग्रहग्याम् नास्तिक्यादपि अनास्यामश्रद्धानीयाम् अवस्थां दशामारुताम् । षष्ठो लम्भः ५ ६ १६६. ततति- - तदनन्तरं न तावपि श्रामिकयुवतिध्वपि तस्याः पद्मायाः परिदेवननिदानं विलापादिकारणं विज्ञाय परित्रास्त्र पराधीनासु परायत्तासु सतीषु परिजनमुबान परिकरवादनात् २० उपः समाकर्ण्य उदमुखं यस्यास्तथाभूता साश्रुवदना तज्जननी पद्माखवित्री समागत्य जनित उद्वेगी यस्याः समुत्पन्नखेदा सती बस दुहितरं निजोरसंग स्वक्रोड आरोप्य स्थापयितया तदावोचितै हतास्मि' - 'हाय-हाय मारी गयी इस विलापसे समीप के प्रदेशको मुखरित करती हुई गला फाड़ फाड़कर रोने लगी। उसी समय पहरेपर रहनेवाली स्त्रियाँ जागकर 'क्या है, क्या है' यह कहती हुई उसके पास आ गयीं। इस आकस्मिक घटनासे उन स्त्रियोंके हृदय जल २५ चुके थे. उनके पैग बड़ी चंचलतासे शीघ्र शीघ्र पड़ रहे थे, बिखरे हुए केश समूह रूपी अन्धकार से उन्होंने आकाशको व्याप्त कर रखा था तथा वे रात्रिके समान ज्ञान पड़ती थीं । उन्होंने देखा कि पद्मा, जिसका आश्रय वृक्ष टूट गया है तथा जिसके फूल और पत्ते धूलिसे व्याप्त हो रहे हैं ऐसी लताके समान पृथ्वी तलपर पड़ी हुई है। शोकरूपी अग्निको शान्त करने के लिए ही मानो अश्रुओं के प्रवाह में तैर रही हैं। उत्कट दरिद्रतासे ३० भी कहीं अधिक उद्वेग करनेवाली है । निन्द्रा के संपर्क से भी शोचनीय हैं। निर्दयतासे भी अधिक निन्दनीय है । परस्त्रीके स्वीकारसे भी अधिक दण्डनीय हैं और नास्तिकता से भी अधिक अनादरणीय अवस्थाको प्राप्त हैं। $ १६६. तदनन्तर पहरेपर रहनेवाली स्त्रियाँ भी जब उसके विद्यापका कारण जानकर भयसेवा हो गयीं तत्र परिजनोंके मुख से यह समाचार सुन पद्माकी माता रोती हुई ३५ चहाँ आयीं। उस समय उसे बहुत भारी उद्वेग उत्पन्न हो रहा था। उसने पुत्रीको गोद में
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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