SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्यचिन्तामणिः [ १६५ पद्माया: विवर्तितगात्रा निमीलितनेत्रैव प्रसारितपाणिः परितः पर्यङ्के पति व्यचेष्ट' । अदृष्ट्वा च तलिमसविधे धवमवधूतावशिष्टनिद्रा द्रुतमुत्थाय शयनगृहमभितः प्रदीपाट्टेषु प्रलम्बमानमणिकनक सुमनोदार्मानिकामस्थूलशातकुम्भस्तम्भच्छायास्वप्यतुच्छ- रणरणकविह्वला प्रहृतरपूर्वगात्रा धात्रीतलचुम्बितलम्बमान शिथिलकेशकलापा कलापिनीव नृत्तोयता, विद्युदिव मेघावलीवलयिता, वलय१५ रवमुखरितकरपल्लवैः पल्लवयन्तीव परामृशन्ती भुवं भूयः पर्यभ्रमत् । एवं नेकवारं वरदर्शनशङ्कया दरस्तम्भिताक्रन्दप्रसंगा स्वाङ्गच्छायामपि तच्छायां संदिहाना भूत्वापि निशान्ते कान्तं यदा 'नैक्षिष्टता ' हा हतास्मि इति परिदेवन मुखरितोपकण्ठा कलकण्ठो मुक्लकण्ठं रुरोद । तावता २५० गौरवेण विचर्तितं गात्रं शरीरं यया तथाभूता निर्मालिने नेत्रे यस्यास्तथाभूतैव मुकुलितको चनैव प्रसारितपाणिर्विस्वास्तिहस्ता सतीश पट अ । अदृष्ट्रा चेति-१० तलिमसविधे तल्पसमीपे धवं पतिम् अष्ट्वा चानवलोक्य च अबूता दूरीकृत अपशिष्टनिद्वा यथा तथाभूता सती, दुतं शीघ्रम् उत्थाय शयनगृहं शय्यागारमभितः परितः प्रदीप हे दीपस्थापकामदेशेषु मलस्वमानानि समानानि मणिकनकसुमनोदामानि रत्नभर्मकुसुममाल्यानि येषु तथाभूता ये निकामस्थूला अतिपीवरा: शातकुम्भकुम्भाः स्वर्णस्तम्नास्तेषां छावास्त्रपि अनुन्दर रणकेन प्रचुरीकन विला विचित् प्रह्वतरं नम्रतरं पूर्वगात्रं यस्याः सा धात्रीतलचुम्बिता महीतलम्बिता लम्बमानाः समानाः शिथिल१५ केशकलास शिथिलक समूहा यस्याः सा नृनोयता कलापिनष मयूरीव मेवाल्यां धनमालाया वलयिता वलयमिवाचरिता विद्युदिव तडिदिव वलयरत्रेण कङ्कणशब्देन मुखरिताः शय्यायमानाः ये करपल्लवाः करकिसलयास्तैः पल्लवयन्तीव किसलययुक्तां कुर्वन्तीय भुवं भूमिं भूयः पुनः पर्यभ्रमत् परितो भ्रमति स्म । एवमिति एवमनेन प्रकारेण नैकवारमनेकवारं वरदर्शनस्य वल्लभावलोकनस्य शङ्का संशीतिस्तया दरस्तम्भित ईषद्रवरूद्ध प्राक्रन्दप्रसङ्गो रोदनावसरी यथा २० स्वशरीरप्रतिकृतिमपि तस्य वल्लमस्य छाया प्रतिकृतिस्तां संदिहाना संशयाना भूत्वापि निशान्ते गृहे तथाभूता स्वाङ्गच्छायामपि कान्तं वं यदा नैक्षिष्ट नावलोकयामास तदा ' हा हतास्मि' इति परिदेवनेन करुणविलापेन मुखरितं शब्दायमान मुनक परिसरो यस्यास्तथाभूता कलकण्टी मधुरस्वरा पद्मा, मुक्तकण्ठमुच्चे रुरोद | रही थी, जिसने अपने शरीरको कुछ-कुछ घुमाया था और जो नेत्र बन्द किये किये ही हाथ फैला रही थी ऐसी पद्माने शय्यापर पतिको खोजा | जय शय्याके समीप उसे पति नहीं २५ दिखे तब अवशिष्ट निद्राको दूर कर वह शीघ्र ही उठकर खड़ी हो गयी और शय्यागृह के चारों तरफ दीपकों से सुशोभित अट्टालिकाओं में तथा लटकती हुई मणिमय और स्वर्णमय फूलोंकी मालाओंसे युक्त सुवर्णके स्थूल खम्भों की छात्राओं में भी उन्हें खोजती हुई बारवार घूमने लगी। उस समय वह अत्यधिक उत्कण्ठासे विह्वल हो रही थी। उसके शरीरका पूर्व भाग बहुत कुछ झुका हुआ था। उसके लटकते हुए ढीले केशोंका समूह पृथिवी तसे ३० चुम्बित था और उससे वह नृत्य करने के लिए उद्यत मयूरीके समान अथवा मेघमालासे घिरी हुई बिजली के समान जान पड़ती थी। वह चूड़ियोंकी खनक से शब्दायमान कर पल्लवों से पृथ्वी का स्पर्श कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानों पृथ्वीको पल्लवोंसे युक्त ही कर रही हो। इस प्रकार अनेक बार पतिके देखनेको शंकासे जिसके रोनेका प्रसंग कुछकुछ रुक गया था तथा अपने शरीरकी परछाईको भी जो उनके शरीरकी परछाई समझ ३५ बैठी थी ऐसी पद्माने जब रात्रिके अन्त समय पतिको नहीं देखा तब वह मधुरकण्ठी 'हा २. प्रदोषा १. यचेष्ट-- अष्ट इति दि० । २ तलिमसविधे - तल्पसमीपे इति दि० । दीपाका प्रदेशेषु इति दि० ४. म० तदच्छायाम् ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy