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________________ गचिन्तामणिः [११७ गन्धर्वदत्त्या सहघनतरमौर्वीनिनदगम्भीरगर्जतजितप्रतिभटस्फुटकपिलकोपरागविद्युदुद्द्योतितवपुषि वर्षति पृषत्कधारां सत्यंधरतनूजन्मनि धरापतिधराधराणां प्रत्यग्नखण्डितेभ्यः कण्ठकुहरेभ्यो मुखरितनिखिलहरिदववाशा, काशकुसुममजरोचाभिश्चामरैरारचितफेनपटलविभ्रमा, शरदभ्रकुलमित्रैरातपत्रैरासूवितपुण्डरीकपण्डइम्बरा, विडम्बितशिखण्डिबहभरः कचनिचयः कल्पितर्शवालविलासा, विलसद्शिकनिमल.पि.मर; प्रकटितपलिनशोभा, हरिदिभकरदण्डानुकारिभि जैर्भुजङ्गमैरिव तरद्भिस्तरलीकृता, वृत्तपातितान्पादपानिव कबन्धान्कर्पन्ती, दिगन्तकूलंकषा क्षतजवाहिनी प्रावतिष्ट । न्यतिष्ट च भयाविटमनाः काष्ठाङ्गारप्रमुखः प्रश्नानिधनैकफलात्प्रत्यर्थिपार्थिवलोकः । Po घनाघन इवाकालिकमेव इव पृषत्कधारां बाणसन्तति वर्षति सति, धरापतयो राजान पुत्र धराधराः पर्वता१० स्तेषां प्रत्यग्रखण्डितेभ्यो नृतनविदारितेभ्यः कण्ठकुहरेभ्यो ग्रीवागुहाभ्यः क्षतजवाहिनी रुधिरस्रवन्ती प्रावर्तिष्ट प्रवृत्ताभूत् । अथ क्षतजवाहिन्या विशेषणान्याह-मुखरितेति-मुपरिताः शब्दिता निखिला हरिदवकाशाः कान्तराणि यया सा, काशेति-काशकुसुममञ्जरीवच्चारुभिः सुन्दरैः चामरैलिन्यजनैः आरचित: कृत: फेनपटल विभ्रमो डिण्डीरपिण्डसंदेहो यया सा, शरदभ्रेति- शरदभ्राणां शरदवारिदानां कुलमित्रैः शुक्लैरित्यर्थः आतपत्रैश्छन्नः आश्रितः प्रारब्धः पुण्डरीकपण्डस्य श्वेतारविन्दएमूहस्य डम्बरो१५ नुकारी यस्यां सा, विडम्बितेति-विम्बितस्तिरस्कृतः शिखण्डिवहणिां मयूरपिच्छाना भर: समूहो येस्तैः कचनिचयैः केशकलापैः कल्पिती विहितो शैवालविलासो जलनीलीविभ्रमो यस्यां सा, बिलसदितिविलसन्तो द्योतमाना य उडुनिकरा नक्षत्रसमूहास्तद्वनिमलैः मौलिमौक्तिकप्रकरः मुकुटमुक्ताफलसमूहै: प्रकटिता पुलिनशोमा तटशोमा यस्याः सा, हरिदिभेति-हरिदिभानां दिग्गजाना करदाताः शुण्डाददास्ताननुकुर्वन्तीत्येवंशीलस्तैः भुजैर्बाहुभिः तरद्भिः प्लवमानैः भुजङ्गमैरिव नागरिव सरलीकृता चलीकृता, कृत्तेति-आदी कृत्ताश्छिमाः पश्चात्पातिता इति कृत्तपातितास्तान् तथाभूतान् पादपानिव वृक्षानिव कथधान् शिरोरहितमृतमानवदेहान् कर्षन्ती नयन्ती दिगन्तानां कूलं तर कषतोति खण्डयतीति दिगन्तकूल. कषा 1 न्यवर्तिष्ट चेति-मयेन भीत्याविष्टं मनो यस्य तथाभूतः काष्ठाङ्गारप्रमुखः प्रत्यर्थिपार्थिवलोकः शत्रुनृपतिसमूहः प्रधनान् समरात् न्यवतिष्ट च निवृत्तो बभूव च । प्रकट हुई क्रोध जनित लालिमारूपी बिजलोसे जिनका शरीर प्रकाशमान हो रहा था ऐसे २५ असमय में प्रकट हुए मेघके समान जीवन्धरकुमारने ज्योंही बाणोंकी धाराको वर्पाना शुरू किया त्यों ही राजारूपी पर्वतोके नवीन खण्डित कण्ठरूपी कन्दराओंसे म्बुनकी वह नदी वह निकली जिसने कि अपने शब्दसे समस्त दिशाओंके अन्तरालको शब्दायमान कर रखा था। काशकी पुष्पमंजरीके समान सुन्दर चामरोंसे जिसमें फेनपट लकी शोभा उत्पन्न हो रही थी। शरद ऋतुके मेघमण्डलके समान छत्रोंसे सफेद कमलोंके समूहका आडम्बर प्रकट हो रहा १. था। मयूरकी पिच्छावलीकी विडम्बना करनेवाले केशोंके समूहसे जिसमें शैवालको शोभा प्रकट थी। चमकते हुए नक्षत्रसमूह के समान निर्मल मोतियों के समूह से जिसमें तटोंकी शोभा प्रकट थी। दिग्गजोंके झुण्डादण्डके समान भुजाओंसे जो तैरते हुए सोसे हो मानो चंचल थी। काट कर गिराये हुए कबन्धोंको जो वृक्षोंके समान खींच रही थी और जो दिशाओं के अन्तरूपी किनारोंको घिस रही थी। काष्ठाङ्गार आदि शत्रु राजाओंका समूह भयभीत हो ३५ मृत्युमप एक फलसे युक्त युद्धसे वापस लौट गया। १. म० स्फुटकपोलकोपराग।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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